पिच खोदकर मैच रुकवाना आता है : शिव सेना


दिन भर बहस चलने के बावजूद, को फैसला न हुआ। देश के सबसे मंहगे वकीलों की फ़ौज कम से कम आज आज़ादी न हासिल कर सकी। अर्नब को ज़मानत नहीं मिली। हाईकोर्ट ने कह दिया है कि अंतरिम राहत चाहिए तो सेशंस कोर्ट जाओ। आपको बता दें कि शिवसेना की प्रशासनिक क्षमता भी प्रशंसनीय है। उसकी निंदा जीतनी करों वह भी कम है। अर्नब गोस्वामी के खिलाफ मामले को चाहे जितना कमजोर प्रचारित किया जाए, मामला कमजोर है नहीं। इस आरोप में दम हो सकता है कि गिरफ्तारी बदले की कार्रवाई है पर बदला पूरी तैयारी से लिया जा रहा लगता है। 

संजीव भट्ट को अगर सच बोलने की सजा दी जा सकती है तो किसी की तरफ से किसी पर भौंकने की सजा क्यों नहीं दी जानी चाहिए। नरेन्द्र मोदी की सरकार जिस तरह मनमानी कर रही है उसमें उनके समर्थक को इस तरह गिरफ्तार किया जाना प्रशंसनीय है, भले गलत हो। मामला यह नहीं है कि बदला लेने के लिए कार्रवाई की जा रही है। मामला यह है कि पहले कार्रवाई नहीं की गई। बचाव पक्ष ने पूरी कोशिश की और तीन दिन में जमानत नहीं मिली और दीवाली की छुट्टी होने के कारण जमानत की संभावना नहीं होने के कारण जेल में रहने की मजबूरी -अभियोजन की सोची समझी योजना हो सकती है पर यह भी प्रशंसनीय है। 

किसी का दिमाग खराब हो जाए तो ठीक करने वालों के पास उपाय होना चाहिए और शिव सेना ने बता दिया है कि उसे पिच खोदकर मैच रुकवाना आता है तो सरकार चलाना भी आता है। दूसरी तरफ, सरकारी आदेश में टाइपिंग और हिज्जे की गलतियां हावर्ड और हार्डवर्क का अंतर बताती है। वैसे अर्नब की गिरप्तारी के मामले में वरिष्ठ पत्रकार राजकेश्वर सिंह की यह टिप्पणी सब कुछ कह जाती है। वो लिखते हैं कि किसी आपराधिक मामले में पुलिस किसी को गिरफ्तार कर ले…. और गिरफ्तार किया गया व्यक्ति पत्रकार हो… तो यह पत्रकारिता पर हमला कैसे कहा जा सकता है? 

दरअसल यह सवाल उसी समय ही उठने लगे थे जब अर्नब की गिरफ्तारी की कुछ प्रमुख राजनैतिक शख्स और सरकार से जुड़े लोग इसे पत्रकारिता पर हमला बता रहे थे। शायद यही कारण रहा कि गृह मंत्री अमित शाह का उनके पक्ष में बयान आया तो किसी को ताज्जुब नहीं हुआ। वैसे वरिष्ठ पत्रकार राजकेश्वर सिंह व दूसरे पत्रकारों का यह सवाल बिल्कुल जायज है कि किसी भी पत्रकार को यह छूट कैसे मिल सकती है कि वह पत्रकार होने के नाते किसी को भी ( नेता-अफसर या फिर कोई और) कुछ भी कह सकता है? बदतमीज़ी कर सकता है। यह भी हो सकता है कि या सवाल का मनमाफिक जवाब न मिलने पर उसे बोलने ही न दे। 

वैसे थोड़ा सा पीछे मुड़कर देखा जाए तो सुशांत केस में तो कोई सुसाइड नोट भी छोड़ा या लिखा नहीं गया था। इतना ही नहीं इस मामले में न किसी का नाम भी लिया था फिर भी अर्णब ने रिया चक्रवर्ती समेत कई को जेल पहुंचा दिया। उस वक्त बोलेने वालों की संख्या उंगली में गिनने वाली थी जबकि अर्नब के साथ पूरी सरकार और पार्टी खड़ी दिख रही थी। वहीं अब एक इंटीरियर डिज़ाइनर ने अपनी मां के साथ खुदकुशी करने से पहले सुसाइड नोट में अर्णब को ज़िम्मेदार ठहराया तो इन लोगों को पूछताछ भी मंज़ूर नहीं है जबकि मरने के पहले डिज़ाइनर ने अर्णब पर उसके करीब पांच करोड़ रुपये हड़प लेने का आरोप लगाया था।

सवाल ये है कि क्या भारतीय आपराधिक प्रक्रिया संहिता में संपादकों / प्रेस मालिकों / स्टार एंकरों के लिए आत्महत्या के लिये उकसाने के मामले में पुलिसिया कार्रवाई के क्या कोई विशेष प्रावधान है? (अर्नब के मामले में दो दो लोगों के सुसाइड नोट मौजूद है) ऐसे मामले में क्या सरकार मुक़दमा चलाने से मना कर दे (जैसा कि पिछली सरकार ने किया था) या फिर पुलिस जांच करके कार्रवाई करे, जैसा हो रहा है। अब ऐसे में अर्नब के साथ खड़े होने वाले लोगों को इस सवाल का जवाब ज़रूर देना चाहिए कि जब अर्नब पत्रकारिता के सभी मानकों की धज्जियां रोज़ उड़ाते थे, तब उनके विरोध में क्या आवाज़ उठाई थी? कई लोग यह भी कह रहे हैं कि अर्नब ने पत्रकारीय अपराध किया हैं, लेकिन पुलिस ने जो किया , जैसे किया वह ग़लत है।

उसका विरोध होना चाहिए। यह तर्क एक तरह से बौद्धिक बेईमानी वाला है। अर्नब अपराधी भी हैं और पुलिस उनके साथ वह न करें जो प्राय: अपराधियों के साथ करती है। कुछ अराजकता तो पुलिस हर गिरफ़्तारी में करती ही है। तब तमाम बुद्धिजीवी ज़्यादातर चुप क्यों रहते हैं? यूपी की बात करें तो पिछले दिनों योगी सरकार ने कई पत्रकारों के खिलाफ मामले दर्ज किए तब ये लोग खामोश क्यों रहे? यूपी के मिर्जापुर में एक पत्रकार पवन जायसवाल पर महज इसलिए एफआईआर दर्ज करायी गयी क्योंकि उसने मिर्जापुर के एक स्कूल में बच्चों को मध्याह्न भोजन (मिड-डे मील) में ‘नमक-रोटी’ परोसे जाने का मामला उजागर किया था। 

उस वक्त ऐसे बौद्धिक लोग क्यों खामोश रहे ये वही जानें। ऐसे में पत्रकार राजकेश्वर सिंह का यह सवाल जायज लगता है कि अब तमाम सरकार समर्थक पत्रकार मान रहे हैं कि अर्नब ने गंभीर पत्रकारीय अपराध किये है तो फिर ऐसी उदारता मीडिया उन अपराधियों पर क्यों नहीं दिखाता, जिनकी गाड़ियां पुलिस अभिरक्षा में पलट जाती है या फिर पकड़ने के बाद भी पुलिस मुठभेड़ करती है… ? तब तो यही मीडिया पुलिस कार्रवाई पर मन ही मन जश्न मनाता है। ग़लत हमेशा ग़लत होता है।

इन सवालों के आलोक में अर्नब की गिरफ़्तारी से आज एक बात बहुत साफ़ हो गई कि पत्रकारों के भी अपने राजनीतिक दल हैं। उनके अपने पत्रकार हैं और समान विचारधारा वाले ये सब लोग अब खुलकर साथ आ गये हैं। सड़क पर उतर रहे हैं। पत्रकार होकर भी एक लंबे अर्से से पेशगत मर्यादा को दरकिनार कर तमाम ज़रूरी सवालों से मुंह फेरने वाले कई पत्रकार अब सामने आ गये हैं। वैसेपत्रकारों की इन कारगुज़ारियों से आगे के लिए अब यह अच्छा होगा किसी व्यक्ति को पत्रकार के भेष में कुछ और करने की ज़रूरत नहीं होगी, बल्कि वह खुलकर अपने दल, गुट के साथ रहेगा। बस ध्यान यह रखना होगा कि परिस्थितियाँ बदलने पर वह फिर खुद को पत्रकार बताकर निष्पक्ष पत्रकारिता की दुहाई न देने लगे।या फिर नेताओं की तरह अपना दल छोड़कर मौक़े पर फ़ायदेमंद दल के साथ न चला जाये।

अर्नब गोस्वामी के जेल जाने के बाद, जो पत्रकार अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई दे रहे हैं, अब उनकी पत्रकारिता को दूर से ही नमस्कार करना पड़ेगा। लगता है कि ये पत्रकार इस तथ्य को भूल जा रहे हैं कि अर्नब किसी पत्रकारीय मिशन या खबर के चलते गिरफ्तार नहीं किए गए। वो सीधे तौर पर अपने स्टूडियों बनाने का पैसा न देने और आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ्तार हुए हैं। मामला और आरोप दोनों ही संगीन हैं और कानून की नजर में अपराध है। अगर उस वक्त राज्य में कोई दूसरी सरकार होती है तो तत्काल एक्शन हो जाता पर उस वक्त मामला दबा दिया गया। खैर...। अब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के संदर्भ में बात करें तो ऐसे उदाहरण भी हैं जब तमाम पत्रकार पत्रकारीय मिशन और खबरों के चलते भी गिरफ्तार किए गये। 

बिडम्बना तो यह है कि आज अर्नब का समर्थन करने वाले पत्रकार उस वक्त पता नहीं कहां थे जब मिर्जापुर और वाराणसी समेत कई शहरों में खबरों के चलते पत्रकारों के खिलाफ पुलिस कार्यवाही हुयी थी ? अब अर्नब के चैनल का जिक्र करें तो सब कुछ साक्षात और लाइव देखने के बाद भी कम से कम किसी पत्रकार को यह बताने की जरूरत नहीं है कि रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी ने पत्रकारीय धर्म के साथ किस तरह दुराचार किया। पत्रकार रोहिणी सिंह ने ट्विट किया है कि यूपी में पत्रकारों के खिलाफ 50 से अधिक मामले दर्ज हुए हैं। क्या अर्णब में साहस है कि वे इस मसले पर योगी सरकार को ललकार सके। आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले भी ऐसे किसी भी मसले पर आज तक एक लाइन भी नहीं बोले। पत्रकार ममता मल्हार अर्नब की पत्रकारिरता पर कहती हैं कि लोग आपको सब कुछ मानेंगे पर पत्रकार नहीं मानेंगे। 

मानेंगे भी तो मैं लिखकर दे सकती हूं कि ऐसे लोगों को अभी अपनी पत्रकारिता में , सही गलत को समझने, पत्रकारीय और गैर पत्रकारीय कर्मकांडों को पहचानने की समझ बढ़ाने की बहुत जरूरत है। आप हो हल्ले वाले एक चैनल के मालिक पत्रकार हैं इसलिए आपको बदतमीजी का हक अलिखित, अघोषित रूप में मिला हुआ है। पर जब आपको पुलिस घसीटकर ले जाती है तो आप चाहते हैं कि आपको वीआईपीज की तरह गिरफ्तार किया जाए। ऐसी घसीट टाइप गिरफ्तारियां तो भारत में रोज होती हैं। अब सवाल उठता है कि क्या कोई पत्रकार देश के कानून से ऊपर है ? इसमें कोई शक नहीं कि आज अर्नब की गिरफ्तारी पर प्रायोजित बहस करने वाले तमाम पत्रकार भारतीय जनता पार्टी का तमाम गलत -सही मुद्दों पर समर्थन करते आए हैं। वे ऐसे तमाम मुद्दों पर खामोश रहते हैं जो मोदी सरकार को असहज कर सकते हैं। आज अर्नब की गिरफ्तारी पर सवाल उठाने वाले कुछ मीडिया ग्रुप पर उनके पत्रकारीय मिशन को लेकर सवाल उठ रहे हैं पर उन्हें भी अर्नब की तरह इसकी परवाह नहीं है।

वैसे प्रख्यात टीवी पत्रकार रवीश बिल्कुल सही कहते हैं कि अर्नब की पत्रकारिता रेडियो रवांडा जैसा ही उदाहरण है। इसके उद्घोषक ने भीड़ को उकसा दिया और लाखों लोग मारे गए थे। अर्णब ने कभी भीड़ की हिंसा में मारे गए लोगों का पक्ष नहीं लिया। पिछले चार महीने से अपने न्यूज़ चैनल में जो वो कर रहे हैं उस पर अदालतों की कई टिप्पणियां आ चुकी हैं। तब किसी मंत्री ने क्यों नहीं कहा कि कोर्ट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कर रहा है? जबकि मोदी राज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं को जिनती बार उभारा गया है उतना किसी सरकार के कार्यकाल में नहीं हुआ। हर बात में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा बताई और दिखाई जाती है। वैसे उद्धव ठाकरे सरकार ने इस मामले में प्रचुर संयम का परिचय दिया है। कई हफ्तों से अर्णब बेलगाम पत्रकारिता की हत्या करते हुए हर संवैधानिक मर्यादा की धज्जियां उड़ा रहे थे पर सरकार पूरी तरह संयमित थी। तारीफ करनी होगी शिवसेना की कार्यकर्ताओ की जो अपने मुख्यमंत्री की तरह ही बहुत संयमित रहे।

गोस्वामी को दो साल पुराने आत्महत्या के एक मामले में किया गिरफ्तार  

अर्नब गोस्वामी को 53 साल के इंटीरियर डिजाइनर को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में बुधवार की सुबह गिरफ्तार किया गया। गोस्वामी ने दावा किया कि पुलिस ने उनके घर पर उनके साथ बदसलूकी की। वरिष्ठ पत्रकार को जिस मामले में गिरफ्तार किया गया है दरअसल वह साल 2018 का है। साल 2018 के मई महीने में इंटीरियर डिजायनर अन्वय नाइक औऱ उनकी मां कुमुद नाइक ने अलीबाग के अपने घर मे खुदकुशी की थी। मरने के पहले अन्वय ने सुसाइड नोट छोड़ा था, जिसमें उन्होंने अपनी मौत के लिए तीन लोगों को जिम्मेदार ठहराया गया था।उनमें से एक नाम अर्नब गोस्वामी का भी था। आपको बता दें कि महाराष्ट्र पुलिस ने दो साल पुराने आत्महत्या के एक मामले में  अर्नब गिरफ्तार किया है। इस गिरफ्तारी के बाद बहस छिड़ गई है कि क्या यह ‘फ्री स्पीच’ पर हमला है। केस कॉनकॉर्ड डिजाइन्स प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक अन्वय नाईक की खुदकुशी से संबंधित है। उन्होंने कथित तौर पर एक सुसाइड नोट छोड़ा था, जिसमें गोस्वामी पर गंभीर आरोप लगाए थे। इस सुसाइड नोट में अर्नब पर डिजाइनर अन्वय नाईक का बकाया भुगतान न करने के आरोप लगाए गए हैं। पीड़ित परिवार ने सीधे तौर पर कहा है, अर्नब गोस्वामी की वजह से ही अन्वय नाईक ने आत्महत्या की थी। पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ सबूतों की कमी का हवाला देते हुए मामले को 2019 में बंद कर दिया था। 


मई 2020 में महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने अपराध जांच विभाग को मामले की फिर से जांच करने के आदेश दिए. ‘The Caravan’ को दिए एक साक्षात्कार में अन्वय की बेटी अदन्या नाईक ने इस मामले से जुड़े कई पहलू उजागर किए हैं। अदन्या ने बताया कि उनके पिता रिपब्लिक टीवी के साथ कौन से प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे। कैसे केस की पैरवी करते समय उनके परिवार को धमकियां दी गईं। अदन्या ने बताया कि उनके पिता को 2016 में रिपब्लिक टीवी नेटवर्क की तरफ से वर्क ऑर्डर मिला था। इस प्रोजेक्ट की कुल लागत 6.4 करोड़ रुपये थी। प्रोजेक्ट पूरा कर सौंप दिया गया। सब कुछ सही था फिर भी लास्ट में मेरे पिता को प्रोजेक्ट में कुछ बदलाव के लिए मजबूर किया गया। अर्नब की गिरफ्तारी पर महाराष्ट्र सरकार में मंत्री नवाब मलिक ने कहा, 'कानून से बड़ा कोई नहीं और निश्चित रूप से कानून अपना काम कर रहा है। जिस तरह से अर्नब की गिरफ्तारी को लेकर सारे केंद्रीय मंत्री ट्वीट कर रहे हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं, ये साफ हो गया कि अर्नब  गोस्वामी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता हैं।' BJP नेता राम कदम ने कहा कि अर्नब के साथ 9 पुलिसकर्मियों ने मारपीट की। पुलिस ने महाराष्ट्र सरकार के गलत आदेशों का पालन किया है।




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