स्वर्णजयंती फैलो वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कमी लाने के लिए समुद्री क्षारीयता बढ़ाने की प्रविधियां ढूँढ़ रहे हैं

नई दिल्ली/पीआईवी। भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर एवं 2020-21 के स्वर्णजयंती फैलो अरविन्द सिंह वैश्विक जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से निपटने के लिए वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की मात्रा में कमी लाने हेतु इस प्रक्रिया में समुद्र की क्षारीयता को बढ़ाने की भूमिका की जांच कर रहे हैं। मानव-जनित और अन्य प्रक्रियाओं के कारण वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ता उत्सर्जन एक ऐसी वैश्विक समस्या है जिससे वैज्ञानिक विभिन्न तरीकों से निपटने की कोशिश कर रहे हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा प्रारम्भ की गई स्वर्णजयंती फेलोशिप विजेता एवं  प्रशिक्षण से भौतिक विज्ञानी और पेशे से जैवभूगर्भरसायन शास्त्री (बायो-जियो केमिस्ट) अरविंद सिंह उन खनिजों की पहचान करेंगे जिनका उपयोग निरंतर प्रक्रिया के द्वारा समुद्र की क्षारीयता को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। साथ ही वे समुद्र की क्षारीयता में वृद्धि के प्रभाव की जांच करने के अलावा कार्बन, नाइट्रोजन और फास्फोरस चक्र और पादप प्लवक (फाइटोप्लांकटन) तथा जीवाणु समुदाय की संरचना पर बढ़ी हुई क्षारीयता के प्रभाव को भी  समझेंगे।  

इन वैज्ञानिक महोदय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अब यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आने वाले दशकों में, हमें ऐसे जलाशयों की आवश्यकता हो सकती है जिनमें औद्योगिक और अन्य मानव निर्मित परिस्थितियों से उत्सर्जित खरबों टन कार्बन डाइऑक्साइड का भंडारण किया जा सके। वैज्ञानिक अरविन्द सिंह ने कहा कि "सीनोज़ोइक युग (6 करोड़ 60 लाख वर्ष पूर्व) में वैश्विक शीतलन के परिणामस्वरूप तीव्र रासायनिक अपक्षय की हमारी समझ के आधार पर, यह प्रतिपादित किया गया है कि बड़े पैमाने पर खनिज विघटन के माध्यम से बढ़ी हुई समुद्री क्षारीयता से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड भंडारण के लिए एक समाधान प्रदान करने की क्षमता है।’’ 

वह बताते हैं कि खनिज विघटन से महासागर कार्बोनेट रसायन संतुलन में हाईड्रोजन कार्बोनेट (एचसीओ3 और कार्बन मोनोऑक्साइड– सीओ32) अर्थात् (यानी क्षारीयता में वृद्धि) की ओर बदलाव आएगा ताकि वातावरण से अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड महासागरीय जल में विलय  किया जा सके और फिर उसे सागर में लंबे समय (1000 से अधिक वर्षों की अवधि) तक के लिए संग्रहीत किया जा सके। समुद्र में वर्तमान विद्यमान कार्बोनेट संतृप्ति क्षेत्रों को प्रभावित  किए बिना खरबों टन कार्बन तक का अनुक्रम करना संभव हो सकता है। इसके बदले में उन्नत क्षारीयता के प्रभाव संभावित रूप से कम ही होंगे और उनसे वहां विद्यमान सूक्ष्म जैविक (माइक्रोबियल) इकोसिस्‍टम पर समुद्र के अम्लीकरण के प्रभावों को कम करने में भी सहायता  मिल सकती हैं, लेकिन इन पहलुओं का प्रयोगात्मक रूप से अब तक परीक्षण नहीं किया गया है।

अरविंद समुद्र में मौलिक प्रक्रिया चक्र के संचालन को समझने के लिए कार्बन (सी) (13सी) और नाइट्रोजन (एन) (15एन) के स्थिर समस्थानिकों का उपयोग करते हैं। उनका यह कार्य समुद्र में कार्बन और नाइट्रोजन के प्रवाह का मात्रात्मक अनुमान लगाने के लिए स्थिर समस्थानिक (आइसोटोप), यथा–अव स्थिति (इन-सीटू) और उपग्रह अवलोकन, सूक्ष्म जीव विज्ञान और सांख्यिकीय मॉडलिंग का मिश्रण है। उनके शोध (पीएच.डी.) कार्य ने अरब सागर में एन2 निर्धारण दरों का पहला प्रत्यक्ष अनुमान प्रदान किया। उन्होंने उत्तरी अटलांटिक में मौलिक  रससमीकरणमिति (स्टोइकोमिट्री) और एन2 निर्धारण दरों पर समुद्र के अम्लीकरण के प्रभाव पर काम किया। उन्होंने स्थानिक (निचि) निर्माण सिद्धांत, समुद्री जैविक पंपों पर सागर में बनने वाले भंवरों (जलावर्त–इडीज) की भूमिका और बनने वाली नाइट्रोजन पर नाइट्रोजन के ही  वायुमंडलीय जमाव के योगदान का अध्ययन किया। उनके मौलिक कार्य ने इस बात पर बल  दिया है कि सूक्ष्म समुद्री जीवाणुओं और शैवालों ओसिअनिक फाइटोप्लैंकटन्स) तथा पोषक तत्वों में कार्बन: नाइट्रोजन और फॉस्फोरस का अनुपात (सी: एन: पी) निश्चित नहीं है।

इसके अलावा, पोषक तत्वों (एन: पी) की रससमीकरणमिति (स्टोइकोमिट्री) में परिवर्तन से समुद्री फाइटोप्लांकटन समुदाय में भी परिवर्तन हो सकता है। उनके शोध ने यह रेखांकित किया है कि वायुमंडलीय जमाव में वृद्धि के परिणामस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) अनुक्रम में वृद्धि हो सकती है, लेकिन यह वातावरण में एन2ओ को भी बढ़ा सकता है। उनके पुरापाषाणकालीन कार्य ने इस बात पर प्रकाश डाला कि ऑक्सीजन समस्थानिक संरचना (δ18ओ) और लवणता का संबंध समुद्र में परिवर्तनशील है। एक अनूठे तरीके से उन्होंने पिछले बीस वर्षों में महासागरों  में 18ओ समस्थानिक रिकॉर्ड का उपयोग करके हिमालय की बर्फ के पिघलने का अनुमान लगाया है।


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