कबीर साहब की शिष्या रानी इंदुमती साधना करके जब ऊपर गयी तो देखा, वही वक़्त के सन्त सतगुरु ही सृष्टि को चला रहे हैं

  • नामदान लेकर, साधना करके कोई भी कर सकता है समय के पूरे सन्त सतगुरु की पहचान
  • अपने असली घर को भूले जीवों को याद दिलाने, रास्ता बताकर पहुंचाने के लिए सन्त धरती पर आते हैं

अपनी अंश जीवात्मा को मृत्युलोक में, नरकों में दुःख पाते देख सब जीवों के पिता सतपुरुष ने अपनी ताकत देकर सन्तों को इस धरती पर भेजा कि जीवों की दुःख तकलीफ दूर करके, प्रेम प्यार देकर, समझा बुझा कर अपने असली घर सतलोक की जानकारी, याद दिलाकर, रास्ता बताकर, रास्ते पर चलाकर घर पहुंचाने वाले इस समय के पूरे समर्थ सन्त सतगुरु दुःखहर्ता त्रिकालदर्शी परम दयालु उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने 19 जून 2022 को गाजियाबाद (उ.प्र.) में दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि इस कलयुग में प्रथम सन्त कबीर साहब थे। 

उन्होंने (अपने बाद) नामदान देने का अधिकार नानक साहब को दिया। सन्त परंपरा को चलाए रखने के लिए 10 गुरु हुए। और सन्त हुए। फिर शिवदयाल जी फिर उन्होंने विष्णु दयाल जी को फिर उन्होंने घूरेलाल जी (दादा गुरु) फिर गुरु महाराज को अधिकार दिया कि जीवों को संभालो, नामदान दो। कलयुग में सन्तों की परंपरा लगभग 700 सालों से चली आ रही है। गुरु महाराज ने समरथ गुरु का काम किया, नाम दान दिया। आप बहुत से लोग गुरु  महाराजके नामदानी हो। उनको समझने की जरूरत है। गुरु को जब आप समझ नहीं पाते हो तो यह काल माया के देश में भूल भ्रम में पड़ जाते हो। कहा गया है-

गुरु को मानुष जानते, ते नर कहिए अंध।

महा दु:खी संसार में, आगे यम का फंद।।

गुरु मनुष्य शरीर में तो रहते हैं लेकिन उनकी आत्मा कहां से जुड़ी है, इसका जल्दी से पता नहीं लग पाता। जब अंतर में गुरु का रूप देखते हैं तब उनकी पहचान होती है।

कबीर साहब की शिष्या रानी इंदुमती साधना करके ऊपर गयी, देखा वही सृष्टि को चला रहे है

जैसे रानी इंदुमती ने कबीर साहब से नामदान लिया। साधना करके अंतर में देखा, बैठे हुए थे सचखंड में तब कहा कि आप हमको मृत्युलोक में बता दिए होते कि मैं ही सब कुछ हूं, मैं ही सब चला रहा हूं तो मुझे इतनी मेहनत, साधना क्यों करनी पड़ती। तब उन्होंने कहा, तुझको विश्वास न होता कि मनुष्य शरीर में इतनी ताकत हो सकती है। ये माया और काल अपने देश में तेरे मन को पीपल के पत्ते की तरह डगमगाता रहता इसलिए तुझको मैंने रास्ता बताया, रास्ते पर चलाया फिर यह जलवा दिखाया। बोल तेरी मदद किया या नहीं। तब चरणों पर गिर पड़ी, बोली कदम-कदम पर आपने मदद किया। जो उपकार किया उसका बदला चुकाया नहीं जा सकता है, उस परोपकार को बताया जा नहीं सकता, उसके लिए शब्द नहीं है। कहा गया है-

सब धरती कागज करूँ, लेखनि सब वनराय।

सात समुंद्र में मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय।।

संतों की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।

लोचन अनंत उघाड़िया, अंनत दिखावन हार।।

यह उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि आप समझ जाओ, यह न सोचो कि अपने मन से गढ़ करके बना करके बता रहे हैं।

जैसे कोई विदेश जाकर अपने गांव को भूल जाता है ऐसे ही जीव भूल गए अपने असली घर को

सन्तमत का जो भी काम करता है, करने के लिए आता है ऐसे ही समझाता है क्योंकि जीव भूल गए अपने घर, पिता को। इतने दिन हो गए हैं कि अब उनको याद नहीं आते। जैसे कोई गांव का आदमी विदेश चला जाए, बहुत दिन रहे तो गांव को भूल जाता है। जब भेजा जाता है कि जाओ जरा हालचाल ले आओ। जाकर बताता है कि मैं आपके गांव से आया हूं, आपके पिता चाचा ने भेजा है तब उसको घर याद आता है। कहता है हम तो पहुंच ही नहीं पाएंगे, रास्ता भी भूल गए, बहुत दिन हो गए हैं, कैसे जाएं। 

लेकिन याद आने लगती है घर की। ऐसे ही जब सन्त आते हैं तो जीवों को याद दिलाते, समझाते हैं तब जीव के समझ में आ जाता है तब चिंता फिक्र होती है याद आती है घर की। जीव समझता है कि भाई बहुत दिन हो गए हमको फंसे हुए। इन चीजों में हम फंसे हैं। यह हमारी कोई अपनी चीज नहीं है। यहां हमको सुख मिलने वाला नहीं है। जब अपने घर पहुंचेंगे तब हमको सुख मिलेगा। तब जीव प्रार्थना करता है, उसके अंदर इच्छा जगती है। कहने का मतलब यह है कि इच्छा बनाई जाती है कि कम से कम उस प्रभु को तो याद करो। आप भी अब अपने असली घर चलने की तैयारी करो।

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