नदियों में नहाने से मुक्ति-मोक्ष नहीं होता - सन्त उमाकान्त जी महाराज


  • जन्मों के पाप सच्चे सन्त के आंखों में देखने, प्रार्थना करने उनके दया करने से कट जाते हैं
  • घाटा चोर जुआरी का होता है, सतसंग में जाने से अच्छे सच्चे धार्मिक विचारशील का नहीं

शरीर से की जाने वाली बाहरी जड़ पूजा पाठ जो केवल थोड़ा बहुत अस्थाई भौतिक लाभ दे पाती है, उससे आगे बढ़कर चेतन जीवात्मा से चेतन परमात्मा की रूहानी पूजा इबादत कर भौतिक और आध्यात्मिक लाभ दोनों दिलाने वाले, रूढ़िवादिता में ही अपना बेशकीमती समय न गवांने की शिक्षा देने वाले, सन्त की शरण में जाकर अपने पापों, कष्टों को दूर कर सुख शांति का अनुभव करने का उपाय बताने वाले, इस समय धरती पर मनुष्य शरीर में मौजूद वक़्त के महापुरुष सन्त सतगुरु दुःखहर्ता त्रिकालदर्शी परम दयालु उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने पौष पूर्णिमा के अवसर पर 2 जनवरी 2018 सायंकालीन बेला में उज्जैन (म.प्र.) में दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर प्रसारित संदेश में बताया कि

पहले नदियां साफ थी, जड़ी बूटियाँ उसमें रहने घुलने से उनमें नहाने से चर्म रोग दूर होते थे। तो इसे धर्म में उसे (नदियों में नहाने को) परिणीत कर दिया, नियम बना दिया। गंगा जमुना कृष्णा कावेरी आदि नदियों में नहाने से पुण्य अर्जित या मुक्ति मोक्ष नहीं होता, कभी नहीं होता। कछुआ मगरमच्छ नदी में ही रहते हैं, किसी के पार होने का की खबर लिखा पढ़ी वर्णन में है? कुछ नहीं। लेकिन शरीर उससे (नहाने से) रोग मुक्त होता था।

जन्म जन्मांतर के पाप कर्म सच्चे सन्त के आंखों में देखने से कट जाते हैं

स्नान करने के बाद महात्माओं सन्तों के स्थान पर लोग जाते थे, सतसंग सुनते समझते थे, उनका दर्शन करते थे। दर्शन करने से जो 15 दिन में जान-अनजान में कर्म बन जाया करते थे, वो कटते थे, नष्ट होते थे। कहा है-

तेरी नजरों में कोई करामात है। हर समय होती अमृत की बरसात है।।

दृष्टि पड़ते ही, कहा गया है-

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।

जन्म जन्मांतर के पाप सन्त के आंखों में आंखें डाल करके देखने से, दया मांगने से, जब वो दया कर देते हैं, पाप नष्ट हो जाते हैं।

सन्तों के बताए रास्ते जो चलते, उनका गृहस्थ आश्रम सुखमय बीतता था

दीन भाव से लोग जाते थे, आत्म भाव से पेश होते थे कि जान-अनजान में कोई कर्म बन गया हो, उसके लिए क्षमा कर दीजिए। कई कर्म ऐसे होते हैं जो आदमी स्वार्थ में, इंद्रियों के रस लेने के लिए जानकर करता है और कुछ अनजान में भी बन जाता है। माफी लोग मांगते थे, वह माफ होता था। कैसे रहा जाए, किस तरह से विचार व्यवहार किया जाए यह भी वो सिखलाते थे। कोई गलती मानलो जानकर बन गई तो अब उसको मत करना, यह भी समझाते थे, उसका उपाय भी कोई पूछता था तो बता देते थे। उस से गृहस्थ आश्रम बड़ा सुख में बीतता था। हर चीज की जानकारी लोगों को हो जाती थी।

सतसंग में जाने से सच्चे अच्छे धार्मिक लोगों का कोई घाटा नुकसान नहीं होता

लेकिन जब से सन्तों के पास लोगों का आना-जाना, सतसंग मिलना बंद हुआ तब से बस दुनिया गृहस्थी ही दिखाई पड़ रही। कह रहे हैं (सतसंग में जाएंगे तो) हमारा घर बिगड़ जाएगा, नुकसान हो जाएगा, घाटा लग जाएगा। घाटा नुकसान किसका होता है? चोर का। गांव में रात भर घूमता रहा दांव नहीं लगा तो घाटा उसका हुआ। घाटा जुआरी का होता है, हार कर, सिर नीचे कर चला आता है। सच्चे अच्छे धार्मिक विचारशील लोगों का घाटा होता है? कोई घाटा नहीं होता। यह (सतसंग में जाने से नुकसान होने वाली बात) मन की खुराफात है।

अज्ञानता में आदमी घर जायदाद जोड़ता जाता है और एक दिन सब छोड़ कर चला जाता है

देखो अज्ञानता में ही तो आदमी घर मकान जमीन जायदाद बढ़ाता चला जा रहा, सम्मान के लिए, कभी यहां रहेंगे कभी वहां रहेंगे। गांव में भी बनाता है, शहर नैनीताल ऊटी में भी बनाता। धार्मिक लोग कहते हैं एक मकान अयोध्या में एक मथुरा एक द्वारका में हो जाए कि नाम के लिए कि हमारा मकान है, कभी यहा जाएंगे कभी वहां रहेंगे। लेकिन इस चीज को भूल गया कि सारे लोग मकान बनाए और मकान छोड़कर के चले गए। कितने लोग नाम के लिए मंदिर बनाये, शरीर छोड़कर चले गए और अब उन मूर्तियों के सामने कोई बैठकर पूजा करने वाला नहीं, संभालने वाला नहीं, मंदिर की मरम्मत करने वाला नहीं। तो असली चीज पकड़ो, अपनी आत्मा का कल्याण करो।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ