सामाजिक न्याय और भारत की आजादी का अब तक का सफर

मनोज कुमार तिवारी 

भारत का लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था नहीं, बल्कि एक नैतिक प्रतिज्ञा है - “न्याय – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक” की। संविधान की यह पंक्ति केवल शब्द नहीं, बल्कि उस संघर्ष की गूंज है जिसने सदियों की असमानता और भेदभाव को चुनौती दी। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक भारत ने सामाजिक न्याय की दिशा में लंबा सफर तय किया है, पर मंज़िल अभी भी अधूरी है।

असमानता से बराबरी तक की यात्रा

भारत का सामाजिक इतिहास ऊँच-नीच, जात-पात और वर्गीय भेदभाव से भरा रहा है। प्राचीन काल की वर्ण व्यवस्था ने समाज को विभाजित कर दिया, जहाँ जन्म के आधार पर अधिकार तय होते थे। 19वीं सदी में राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और आगे चलकर डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे समाज सुधारकों ने समानता और शिक्षा के लिए निर्णायक संघर्ष किया। डॉ. आंबेडकर ने कहा था - “अगर समाज बराबरी का नहीं होगा, तो लोकतंत्र केवल दिखावा रह जाएगा।”

संविधान ने दी समानता की गारंटी

1949 में जब संविधान बना, तो उसकी आत्मा में “सामाजिक न्याय” को सर्वोपरि रखा गया। संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक समानता का अधिकार सुनिश्चित किया गया ।अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के तहत सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को विशेष अवसर देने की व्यवस्था की गई और अनुच्छेद 46 में राज्य को कमजोर वर्गों की उन्नति का दायित्व सौंपा गया। यही वे संवैधानिक आधार हैं जिन पर भारत का सामाजिक लोकतंत्र टिका है।

आरक्षण नीति: सामाजिक न्याय का औज़ार

1950 में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण लागू किया गया। बाद में 1979 में गठित मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार 1990 में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को भी आरक्षण का लाभ मिला। इन निर्णयों ने समाज के हाशिए पर खड़े तबकों को शिक्षा, रोज़गार और राजनीति में भागीदारी का अवसर दिया। हालाँकि इसके साथ आरक्षण का राजनीतिकरण और ‘क्रीमी लेयर’ जैसी बहसें भी उठीं। सामाजिक न्याय का लक्ष्य केवल आरक्षण तक सीमित नहीं रह सकता — यह व्यवस्था तब सफल होगी जब अवसर और सम्मान हर व्यक्ति तक पहुँचेंगे।

बदलती परिभाषाएँ: सामाजिक न्याय का विस्तार

21वीं सदी में सामाजिक न्याय की अवधारणा अब केवल जाति या वर्ग आधारित नहीं रही। इसमें नए आयाम जुड़े हैं —महिलाओं के लिए पंचायतों और संसद में आरक्षण, LGBTQ+ समुदाय के अधिकारों को न्यायिक मान्यता, विकलांग जनों के लिए समान अवसर, अल्पसंख्यक समुदायों की शिक्षा और रोजगार में भागीदारी।अब सामाजिक न्याय का अर्थ “वंचितों की भागीदारी” से आगे बढ़कर “हर नागरिक की गरिमा” बन गया है।

चुनौतियाँ बनी हुई हैं

हालाँकि सात दशकों में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की है, लेकिन सामाजिक न्याय की राह अब भी कठिन है।

  • जातीय भेदभाव – समाज के कुछ हिस्सों में अब भी ऊँच-नीच और छुआछूत के स्वर सुनाई देते हैं।
  • आर्थिक विषमता – अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई नए प्रकार का अन्याय है
  • शिक्षा और अवसर की कमी – ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में शिक्षा और तकनीकी संसाधनों की कमी सामाजिक असमानता को बनाए रखती है।
  • राजनीतिक दुरुपयोग – आरक्षण और सामाजिक न्याय के मुद्दे कई बार वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बन जाते हैं।

सामाजिक न्याय: एक सतत प्रक्रिया

सामाजिक न्याय कोई एक नीति या योजना नहीं, बल्कि एक सतत प्रक्रिया है जो हर पीढ़ी को अपने समय की असमानताओं से लड़ने की चुनौती देती है। आज की पीढ़ी के सामने नई असमानताएँ हैं डिजिटल डिवाइड, शहरी-ग्रामीण अंतर, लैंगिक वेतन असमानता, पर्यावरणीय न्याय जैसे विषय अब “नए सामाजिक न्याय” की परिभाषा बनते जा रहे हैं।भारत ने सामाजिक न्याय के क्षेत्र में बहुत कुछ हासिल किया है, लेकिन असली न्याय तभी होगा जब अवसर और सम्मान केवल क़ानून की देन न होकर समाज की संस्कृति बन जाएँ।

डॉ. आंबेडकर का कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है "राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं जब तक सामाजिक और आर्थिक समानता न हो।" सामाजिक न्याय की यह यात्रा संविधान की किताब से निकलकर जब हर नागरिक के व्यवहार में उतर आएगी, तब भारत सचमुच “सबका भारत” बन पाएगा - जहाँ न कोई ऊँचा है, न कोई नीचा, सब बराबर हैं।


     (लेखक एक सोशल एक्टिविस्ट एवं समावेश फेलो में परियोजना अधिकारी हैं।)

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