धन को किसने पुकारा है, आइए जाने


पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य 

आज के समय में हर कोई अच्छा जीवन जीने के लिए धन की रहस्यमयी खेल में इतना व्यस्त हो गया है कि वह अपना पूरा जीवन उसी में लगा देता है। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार, विभूतियों मेंं इन दिनों अग्रिम स्थान धन को मिल गया है, पर वस्तुतः वह उसका स्थान नहीं है। प्रथम स्थान उदात्त भावनाओं का है। वे जिनके पास हैं, वे देवता हैं। महामानवों को, ऋषि तपस्वियों को, त्यागी बलिदानियों को देव संज्ञा मेंं गिना गया है। 

वे दीपक की तरह जलकर सर्वत्र प्रकाश फैलाते हैं। इस संसार में जितना चेतनात्मक वर्चस्व है, उसे उदात्त भावनाओं का वैभव ही कहना चाहिए। दूसरा स्थान है विद्या का, इसे ब्राह्मणत्व भी कह सकते हैं। तीसरी विभूति है प्रतिभा, इसे क्षत्रित्व कहा जा सकता है। इसके बाद चौथी गणना धन की है। मानव जाति का दुर्भाग्य ही है कि आज धन को सर्वप्रथम स्थान और सम्मान मिल गया है।

इसी का दुष्परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति अधिकाधिक धन संग्रह करके बड़ा सम्माननीय बनना चाहता है, जबकि धन का उपयोग बिना उसे रोके निरंतर सत् प्रयोजनों मेंं प्रयुक्त करते रहना ही हो सकता है। गड्ढे में जमा किया गया पानी तथा पेट में रुका हुआ अन्न सड़ जाता है और अनेक विकार पैदा कर देता है। 

तिजोरी में बंद नोट अपने संग्रहकर्ता को उन्मादी बनाते हैं और सारे समाज में बदबू भरी महामारी फैलाते हैं। इसलिए धन के उपार्जन की प्रशंसा के साथ साथ यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि समाज की महत्वपूर्ण की पूर्ति के लिए उसे तत्काल प्रयुक्त करते रहा जाये।

परिग्रह भी महापातक - भारतीय संस्कृति में पाँच महापातक बताये गये हैं।

  1. हिंसा 
  2. असत्य 
  3. चोरी 
  4. व्यभिचार 
  5. परिग्रह

परिग्रह का अर्थ है - 

विलासिता और अहंता के लिए धन का संग्रह। इसे महा पातकों मेंं गिना गया है। यों तो आज जिसके पास जितना अधिक धन संग्रहित है, वह उतना ही बड़ा सम्मानास्पद है, पर आध्यात्मिक व्याख्या इसके प्रतिकूल है। सम्मान नीतियुक्त उपार्जन के लिए किये गए पुरुषार्थ का किया जाना चाहिए और उसके द्वारा लोकमंगल के जो प्रयोजन पूरे किये गए, उसकी भी सराहना की जानी चाहिए।

धनी का, धन का सम्मान इन दो आधारों पर किया जा सकता है। धन एक विभूति है, उसके पीछे दैवी अनुकम्पा की झांकी है, इसलिए अपने यहाँ दीपावली पर्व पर लक्ष्मी का पूजा होती है, पर वह धन सम्मानित नहीं हो सकता जो लोक हित से अवरुद्ध होकर चंद व्यक्तियों की विलासिता और अहंकार की पूर्ति मेंं लगा हुआ है। ऐसे धन की निंदा की गई है।


     


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