- लेखनी के क्षेत्र में 11 पुस्तकों का प्रकाशन करने वाले बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह को क्यों भुला दिया गया?
- छत्रिय समाज में जन्मे विश्व के जाने-माने लेखक एवं साहित्यकार प्रसिद्ध नारायण सिंह जाति और धर्म से ऊपर उठकर सर्व समाज के लिए किया जमीनी संघर्ष क्षत्रिय से बने सबकी छत्रछाया
आज मैं एक ऐसे महापुरुष की चर्चा करने जा रहा हूं जो छत्रिय वंश में पैदा हुए जहां समाज में ऊंच-नीच की भावनाएं पनप रही थी लोग एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे थे, उस हालात में उन्होंने एक क्रांति का बिगुल बजाया सर्व समाज के लिए शिक्षा के क्षेत्र में महान कार्य किया छत्रिय से सर्व समाज का छत्रछाया बने कई छत्रिय संगठनों के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में लाई बहुत बड़ी महाक्रांति 19वीं सदी के महानायक के रूप में प्रसिद्ध हुए बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह।
"बनारस के प्रथम स्नातक / ग्रेजुएट (1876) बनारस के प्रथम जनप्रतिनिधि एम एल सी (1921) बनारस डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रथम निर्वाचित चेयरमैन (1925) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका जेल यात्रा (1931) आदि कई उपलब्धियां इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया"
बाबूजी एक समाजसेवी, शिक्षाविद व लेखक व संपादक थे। उन्होने 19 वीं सदी में पूर्वांचल के शैक्षणिक एवं सामाजिक उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। वे वाराणसी के उदयप्रताप कॉलेज (पुराना नाम "हिवेट क्षत्रिय हाई स्कूल" वाराणसी) के संस्थापकों में से एक थे। बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के चंदौली जनपद के महाइच परगना के कादिराबाद गांव के गहडवाल क्षत्रिय जमींदार परिवार में ठाकुर रघुराई सिंह जी के यहां हुआ था। रघुराई सिंह एक प्रगतिशील विचारधारा के जमींदार थे। बाबू साहेब की प्रारंभिक शिक्षा गहमर (गाजीपुर) में हुई। वहां से मीडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन 1876 में म्योर सेन्ट्र्रल कॉलेज, इलाहाबाद से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। तत्कालीन काशी नरेश ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह जी ने बाबू साहेब को काशी आमंत्रित कर राजकीय सम्मान प्रदान किया और अपने साथ हाथी पर बैठा कर काशी में घुमाया। शाही हाथी काशी की सड़कों पर घूम रहा था और जनता गगनभेदी नारों से अपने जनपद के स्नातक युवक का फूलों से स्वागत कर रही थी। किसी के लिए ऐसा ऐतिहासिक स्वागत गौरव की बात थी। इस स्वागत ने बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी को भावुक बना दिया और वे पूर्वांचल में व्याप्त अशिक्षा को दूर कर धर्म जाति रंग भेद से ऊपर उठकर नवयुवकों को अपने जैसा ही शिक्षित बनाने के लिए एक कालेज की स्थापना का स्वप्न देखने लगे।
कुछ ही समय बाद बाबूजी कलकत्ता से कानून की डिग्री लेकर वापस आये तो पिता जी ने उनको सरकारी अथवा वेतन पर नौकरी न करने की सौगंध दे डाली। यहीं से बाबू साहेब समाज सेवा की ओर उन्मुख हुये। बाबू साहेब अपने छात्र जीवन से ही पूर्वांचल में व्याप्त अशिक्षा से चिंतित रहते थे। इसलिए उन्होंने शिक्षा के प्रसार द्वारा सामाजिक सेवा और क्षत्रिय स्वाभिमान के उत्थान को अपना प्रमुख कार्यक्षेत्र चुना। बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी ने विभिन्न प्रमुख रियासतों का व्यापक भ्रमण किया और राजा-महाराजाओं को शिक्षा प्रसार के लिए प्रेरित करते रहे। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आपने विभिन्न रियासतों मुख्यतः ग्वालियर,अवागढ, कुरीसुडौली, भिनगा, विजयपुर, मांडा, तिलोई और मझौली आदि रियासतों के सलाहकार के रूप में कार्य किया और कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कराई। राजाओं द्वारा इस दिशा में पूर्ण सहयोग न मिलने के कारण बहुत निराश हुये फिर भी समाज उत्थान में लगे रहे।
अपने मिशन के प्रति समर्पित बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी ने क्षत्रिय सामाजिक संगठन का सहारा लिया। क्षात्र-धर्म के संरक्षण, सुरक्षा और अपने स्वप्नों की शिक्षा संस्था के स्थापनार्थ संसाधन के एकत्रीकरण हेतु एक मंच प्राप्त करने की दृष्टि से उन्होंने ठा0 छेदा सिंह जी और बाबू सांवल सिंह जी बनारस के सहयोग से मृतावस्था में पड़ी क्षत्रिय हितकारिणी सभा को पुर्नजीवित किया। बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी के इस पुण्य कार्य में कुछ महानुभावों ने जिनमें पूर्वी क्षेत्र से राजा खड्ग बहादुर मल्ल मझौली, राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह जी बिसेन भिनगा और ठा0 रामदीन सिंह जी बांकीपुर तथा पश्चिमी क्षेत्र से राजा बलवंत सिंह जी अवागढ़ , ठा0 उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई कुंवर नौनिहाल सिंह जी कोटला-जाटउ ने तन मन और धन से सहयोग प्रदान किया। आप लोगों ने निश्चय किया कि देश के समस्त क्षत्रियों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक सभा संगठित की जाय।
19 अक्टूबर 1897 को अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का गठन किया गया जिसमें राजा बलवन्त सिंह जी अवागढ़ को संस्थापक एवं प्रथम अध्यक्ष बनाया गया। 19-20 जनवरी 1898 को बनारस के बाबू सांवल सिंह जी की सभापतित्व में क्षत्रिय महासभा का प्रथम अधिवेशन आगरा में ठाकुर उमराव सिंह और उनके छोटे भाई की कोठी "बाघ फरजाना" जो बाद में राजपूत बोर्डिंग हाउस के नाम से जानी गयी उसमे सम्पन्न हुई। इस अधिवेशन में पूरब -पश्चिम से 300 से अधिक प्रतिष्ठित क्षत्रियों ने भाग लिया जिसमे देश के कोने-कोने में क्षत्रिय सभाओं की स्थापना तथा क्षत्रियों में शिक्षा का प्रसार करने का प्रस्ताव स्वीकृत हुये।
सन् 1908 में राजर्षि उदय प्रताप सिंह ने साढे दस लाख रूपये का अमर दान देकर काशी में एक विद्यालय खोलने का संकल्प लिया। स्थान के चयन और विद्यालय के स्थापना की जिम्मेदारी बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह ने सम्हाली। राजर्षि की इच्छा थी कि विद्यालय शहर से दूर हो। तदनुसार वरूणा पार काशी के पश्चिमोत्तर सीमा पर कुर्ग स्टेट (कर्नाटक) की 50 एकड़ के भू खण्ड का चुनाव किया गया। इसके लिए राजर्षि ने संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर जान हिवेट को पत्र लिखा। बाबू साहब ने भी जान हिवेट से अपनी मित्रता का उपयोग किया और उस भू-खण्ड को सांकेतिक मूल्य पर "क्षत्रिया खैरात सोसाइटी "के पक्ष में अधिग्रहीत कराया। बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह की देखरेख में 25 नवम्बर 1909 को तत्कालीन गवर्नर सर जान हिवेट ने विद्यालय का शिलान्यास किया। बाबू साहब ने नींव पूजन का संकल्प लिया। सात नदियों के जल से भूमि का शोधन किया गया। गर्वरनर के नाम पर विद्यालय का नाम "हिवेट क्षत्रिय हाई स्कूल" पड़ा। बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी को प्रबंध सिमित का अध्यक्ष बनाया गया।
बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह वाराणसी में सेंट्रल क्षत्रिय कॉलेज स्थापित करना चाहते थे। अपनी इस आकांक्षा की पूर्ति हेतु बाबू साहब 1917 में "क्षत्रिय उपकारिणी महासभा कालेज, बनारस" का प्रस्ताव लेकर एक बार पुनः कर्मभूमि में उतर पड़े। प्रस्तावित कॉलेज की स्थापना और संचालन के लिए क्षत्रिय उपकारिणी महासभा की प्रतिनिधि सभा द्वारा निर्वाचित 25 सदस्यों से एक प्रोविजनल बोर्ड ऑफ ट्रास्ट्रीज का गठन किया गया। इस ट्रस्ट के सचिव कुरीसुडौली के राजा सर रामपाल सिंह जी तथा अध्यक्ष जम्बू और कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह जी थे। परन्तु बाबू साहेब का ये पवित्र प्रयास भी पुनः असफल रहा। अब तो भिनगा नरेश और अवगढ़ नरेश का भी साथ और संरक्षण भी नही था। इस योजना हेतु 6 लाख रुपया एकत्र किया गया था। योजना के असफल होने पर इस धन का उपयोग कुछ मेघावी क्षत्रिय विद्यार्थियों को अध्ययन हेतु छात्रवृत्ति देने/विदेश भेजने में किया। ऐसे विद्यार्थियों में डा0 रामकरन सिंह जी , भूतपूर्व प्राचार्य राजा बलवंत सिंह कॉलेज आगरा प्रमुख थे।
प्रसिद्ध नारायण सिंह ने पुस्तक लिखवाने, अनुवाद कराने और सबको प्रकाशित कराने का बीड़ा उठाया। आपने स्वयं साहित्य दर्शन, योग और इतिहास पर कुल 11 पुस्तकों की रचना की जो निम्नलिखित है -
- राजयोग
- हठयोग
- प्राणायाम
- योग की कुछ विभूतियाँ
- योगत्रयी
- योगशास्त्रान्तर्गत धर्म
- सीधे पंडित (उपन्यास )
- प्रबुद्ध योगी (उपन्यास )
- संसार रहस्य (दर्शन )
- जीवन मरण रहस्य (विज्ञान/ दर्शन )
- वर्त्तमान विद्यार्थी
बाबूजी ने 11 पुस्तकों की रचना कराकर 19 वीं सदी में भारतीय इतिहास में इतिहास रचा था। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र को सशक्त बनाने के उद्देश्य से कार्य किया और अपना संपूर्ण जीवन निछावर कर दिया आज ऐसे महापुरुषों को भुला दिया गया आज जरूरत है भारत में ऐसे महापुरुषों की जिन्होंने जाति धर्म से ऊपर उठकर समाज लेखनी में पत्रकारिता संपादन का मान बढ़ाया।
(प्रस्तुति : राजेश शास्त्री, संवाददाता, सिद्धार्थनगर)
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