special on khichdi : शिवावतार सरस्वती पुत्र गुरु गोरखनाथ



संजय तिवारी 

पौराणिक सन्दर्भ बताते हैं कि गोरखनाथ आदिनाथ भगवान शिव के अवतारी थे। उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की उत्पत्ति मछली के पेट से हुई थी। गुरु मत्स्येन्द्र नाथ  भिक्षाटन करते हुए सरस्वती नामक एक माता के दरवाजे पर पहुंचे। भिक्षाम देही.... कहकर भिक्षा मांगने लगे।अपने घर से बाहर निकली वह  महिला उनको कुछ दुःखी दिखीं। मत्स्येन्द्रनाथ जी ने  इसका कारण पूछा तो माता  ने बताया कि धन-दौलत सबकुछ भगवान ने दिया है लेकिन एक औलाद नहीं दिया। उनकी  पीड़ा सुनने के बाद बाबा मस्त्येंद्रनाथ जी ने प्रसाद स्वरूप भभूत दी और वहां से आगे बढ़ गए। कहते हैं कि  12 वर्ष बाद बाबा फिर उसी दरवाजे पर गए। जब  भिक्षा के लिए पुकारा तो वही महिला बाहर निकलीं। बाबा  ने महिला से  पूछा कि 12 वर्ष पहले उन्होंने जो भभूत दिया था उसका क्या फल रहा। इस पर महिला ने बताया कि पड़ोस की महिलाओं ने शक-सुबहा पैदा कर दिया तो उन्होंने भभूत को झाड़ियों में फेंक दिया था। मत्स्येन्द्रनाथ जी को बहुत दुःख हुआ फिर भी उन्होंने शांत भाव से महिला से वह स्थान दिखाने को कहा। वहां पहुंच कर बाबा ने जोर से अलख निरंजन का उद्घोष किया। उद्घोष होते ही वहां एक अत्यंत ज्योतिर्वाण बालक प्रकट हुआ। मत्स्येन्द्रनाथ जी ने उस बालक को अपने साथ ले लिया और वह से निकल गए।

उस महिला सरस्वती ने बहुत कोशिश की कि बाबा बालक को उसे दे दें लेकिन बाबा ने उसकी बात यह कह कर अनसुनी कर दी कि अपने मेरी विभूति पर अविश्वास  किया। जब आपको विभूति पर विशवास नहीं रहा तब इस अलौकिक उद्भव को आपको कैसे सौप सकता हूँ। वही बालक बाद में बाबा गोरखनाथ के नाम से प्रसिद्द हुए। गोरखनाथ जी को मत्स्येन्द्रनाथ जी ने दीक्षा देकर लोक कल्याण के लिए भ्रमण पर भेज दिया। इसी  गुरु गोरख के आशीर्वाद से नेपाल राजवंश के संस्थापक पृथ्वीनारायण शाह देव ने बाईसी और चैबीसी नाम से बंटी 46 छोटी-छोटी रियासतों को संगठित नेपाल की स्थापना की थी। इस राज्य नेपाल के राजमुकुट, मुद्रा पर गुरु गोरक्षनाथ का नाम और उनकी चरण पादुका अंकित है। आज भी गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में पहली खिचड़ी नेपाल राजवंश से ही आती है।

ज्वाला देवी का खौलता अदहन 

माता आदि शक्ति की 52 स्थापित पीठो में से एक हैं माता ज्वाला देवी। आज के हिमांचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में माता की शक्ति पीठ है। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार त्रेता युग में एक बार इस स्थान पर श्रीधर पंडित नाम के एक भक्त ने भंडारे का आयोजन किया।  इस भंडारे में उस समय के प्रख्यात नाथ संत गोरखनाथ जी भी अपने 300 शिष्यों और तांत्रिक गुरु भैरवनाथ के साथ शामिल हुए। जब माता को पता चला कि नाथ प्रणेता गुरु गोरखनाथ स्वयं यहाँ आये हैं तो वह प्रकट होकर गोकरखनाथ जी से मिलने पहुंचीं। वह का दृश्य देख कर गोरखनाथ जी ने भोजन स्वीकार नहीं किया। गोरखनाथ जी शुद्ध वैष्णव संत थे। देवी स्थान पर वामाचार विधि से पूजन अर्चन होने की वजह से म़द्य एवं मांसयुक्त तामसी भोजन बाबा गोरखनाथ ग्रहण करना नहीं चाहते थे। इसलिए गोरखनाथ ने कहा कि वह खिचड़ी खाते हैं वह भी मधुकरी से। 

बाबा गोरखनाथ की बातों को सुनकर देवी ने कहा कि वे भी अब खिचड़ी ही खाएंगी। उन्होंने बाबा गोरखनाथ से कहा कि तुम भिक्षाटन से खिचड़ी की सामग्री लाओ वह अदहन गरम कर रही हैं। इसके बाद देवी स्वयं अदहन गरम करने में लग गयीं।  कथा आती है कि गुरु गोरखनाथ भिक्षा मांगते हुए कौशल प्रदेश के सरयू पार  के कारूपथ नामक क्षेत्र में पहुंच गए। ताप्ती और रोहिन नदियों के संगम पर यहाँ चारो तरफ जंगल था लेकिन यह स्थान बेहद सुंदर, शांत और मनोरम था। इस जगह से प्रभावित होकर गुरु गोरखनाथ यहीं समाधिस्थ हो गए। बाद में हिमालय की तलहटी का यह क्षेत्र गुरु गोरखनाथ के नाम पर गोरखपुर कहलाया। मान्यता है कि समाधि लिए गुरु गोरखनाथ के खप्पर में लोग खिचड़ी चढ़ाने लगे। न कभी बाबा का खप्पर भरा और न ही वे वापस कांगड़ा लौटे जहां ज्वाला देवी स्थान पर देवी के तप से अदहन खौल रहा है । कहा जाता है कि तभी से लोग आकर गुरु गोरख के खप्पर में खिचड़ी चढ़ाते हैं लेकिन आज तक वह खप्पर भरा नहीं। गुरु गोरखनाथ के इंतजार में ज्वाला देवी में आज भी अदहन खौल रहा है।


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