किसानों की आमदनी दूनी करने की नीयत से लाए गए कृषि सुधार कानून को लेकर किसान संगठन भीषण सर्दी के बावजूद बीते लगभग चार सप्ताह से आंदोलन पर हैं। सरकार से छह सात दौर की वार्ता से कोई हल नहीं निकला। अब कुछ जनहित याचिकाओं की मदद से यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा है। इस कानून को लेकर सरकार किसानों की आशंकाओं और सुझावों को मानने को तैयार है पर किसान इस कानून को पूरी तरह वापस लेने से कम किसी फैसले पर मानने को राजी नहीं हैं।
दिल्ली बॉर्डर पर चार हप्तों से से चल रहे धरने के कारण जन जीवन की रफ्तार तो बाधित हुई ही है उद्योगों को भी रोजाना 3000 करोड़ की चपत लग रही है। अलग अलग कारणों से इस दौरान लगभग एक दर्जन किसानों की मौत हो चुकी है। एक ग्रंथी ने आत्महत्या कर ली।पर किसान हैं कि अपनी जिद छोड़ने को तैयार नहीं हैं। उनका कुछ मीडिया चैनलों पर आरोप है कि वे इस आंदोलन की गलत तस्वीर पेश कर रहे हैं। वे आंदोलनरत किसानों को खालिस्तानी, नक्सली, टुकड़े टुकड़े गैंग समर्थक और न जाने क्या क्या कह रहे हैं। इसकी काट के लिए किसानों ने अपना समाचार तंत्र विकसित कर लिया है।
वे पूरी तैयारी से आए हैं। कह रहे हैं अगर एक साल भी आंदोलन चलाना पड़ा तो चलाएंगे। इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस आंदोलन के लिए विपक्ष को साफतौर पर जिम्मेदार ठहराया है। कहा है कि वे किसानों को झूठ प्रचारित करके गुमराह करना बंद कर दें हम उन्हें सिर झुकाकर मना लेंगे। इधर आंदोलन का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट पहुंचने पर सुप्रीम कोर्ट ने इसमें हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया।सुप्रीम कोर्ट ने राम की जय रावण की जय की तर्ज पर इस मसले में अपना रुख कायम रखा।
कोर्ट ने कहा कि विरोध करना मौलिक अधिकार का हिस्सा है। अनुशासनात्मक तरीके से बिना हिंसा के अगर कोई आंदोलन हो रहा है तो उसे रोका नहीं जा सकता। इसके साथ सुप्रीम कोर्ट ने आंदोलनकारियों द्वारा रास्ता रोकने को अनुचित ठहराया। किसानों को सलाह दी है कि वे नाकेबंदी खत्मकर बातचीत का रास्ता अख्तियार करें। सरकार से कहा है कि वह कुछ दिनों के लिए इस कानून पर अमल टाल दे। हम यहां कृषि कानून को लेकर उपजी आशंकाओं, इसकी खासियतों और समाधान को विस्तार में बता रहे हैं।
18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान यह हुआ
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने कहा कि अब समय आ गया है क कोर्ट विरोध की एक रूपरेखा तय करें। कोई भी अधिकार असीम नहीं है। सड़कें बंद होने से लोगों को परेशानी हो रही है। दिल्ली में आवश्यक वस्तुओं की कमतें बढ़ गई हैं। इस पर कोर्ट ने कहा कि हम आपकी बातों से सहमत हैं लेकिन किसान संगठनोंजो विरोध चल रहा है वह तब तक असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता जब तक संपत्ति और जीवन को नुकसान न पहुंचता हो। किसानों का पक्ष सुने बिना हम कोई आदेश पारित नहीं कर सकते। साल्वे ने इस पर दलील देते हुए कहा कि केवल विरोध के लिए विरोध नहीं होना चाहिए एक तरह से सार्वजनिक उपद्रव है।
महंगाई पर किसान समर्थकों का तर्क – सरकार का यह कहना कि किसान आंदोलन से दिल्ली में फल दूध सब्जियों के साथ अन्य सामानों के दाम बेतहाशा बढ़ गए हैं तर्क गले नहीं उतरता। डीजल, पेट्रोल, गैस के साथ अन्य दाम लगातार सरकार बढ़ा रही है तो महंगाई नहीं बढ़ रही है। किसानों अपने हक के लिए आंदोलन कर रहे तो उसका ठीकरा उनके सिर फोड़ा जा रहा। यह कैसा न्याय।
अटार्नी जनरल का तर्क – बीते 22 दिन से दिल्ली में प्रवश के रास्ते जाम हैं। लोग अपनी नौकरियों पर नहीं जा पा रहे हैं। एंबुलेंस तक को जाने आने की इजाजत नहीं है। साथ ही कोरोना फैलने का खतरा भी है। जब प्रदर्शनकारी अपने गांव जाएंगे तो जंगल की आग की तरह कोरोना फैलाएंगे। कोरोना और सोशल डिस्टैंसिंग के तर्क पर किसान पक्ष का काउंटर – सरकार के नुमाइंदें इस समय देश भर में कृषि कानून का भ्रम दूर करने के नाम पर सभाएं कर रहे हैं। वहां न तो सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जा राह है न कोई मास्क लगा रहा है। ऐसे में यह यह कहना कि दिल्ली बॉर्डर पर जमे हुए किसानों से गांवों में कोरोना फैलने का डर है यह तर्क गले नहीं उतरता।
आइए जानते हैं नए कृषि कानून के बारे में
दरअसल इस ऐक्ट को लेकर ढेर सारे कन्फ्यूजन है। कोई कह रहा है कि किसानों के साथ ज्यादती हो रही उनको अपनी बात कहने से रोका जा रहा है। जाड़े में उन पर पानी की बौछारें की गईं। लाठियां मारी गईं। दूसरी ओर कुछ का कहना है कि यह आंदोलन किसानों का है ही नहीं। इसमें किसानों की आड़ में पंजाब की मंडी पर काबिज आढ़ितया और दलाल शामिल हैं। इसके साथ कुछ देश विरोधी तत्व इस आंदोलन में अपनी घुसपैठ बनाकर आंदोलन को भटका रहे और लोगों में भ्रम फैलाकर उनको उकसा रहे हैं।
एक वर्ग यह तर्क दे रहा है कि अगर किसानों के विरोध में यह कानून है तो केवल पंजाब हरियाणा से ही क्यों विरोध हो रहा है। पूरे देश के किसान क्यों नहीं विरोध कर रहे हैं। हालांकि अब देश के अन्य हिस्सों से भी किसानों के शामिल होने की बात सामने आ रही है। कुछ का कहना है कि सरकार ने जो बिल पारित करवाए हैं वह अनकांस्ट्यूशनल (असंवैधानिक) है। जैसे ही इसे सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज करेंगे यह खत्म हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने तो यही कहा था कि वे किसानों की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में मुफ्त लड़ेंगे और य़ह ऐक्ट ही खारिज करा देंगे।
मामला पोलिटिकल हो गया है। पोलिटिक्स में यह समझ में नहीं आता कि कब कौन किसके साथ है और कब विरोध में शमशीर तान खड़ा हो गया है। कृषि बिल को देख लीजिए। जब यह बिल लोकसभा में पारित हो रहा था तो शिवसेना साथ में थी जब यह बिल राज्य सभा में पेश हुआ तो वही अब विरोध में खड़ी हो गई है। कांग्रेस इस ऐक्ट का किस मुंह से विरोधकर रही है यह समझ से परे है। यह कानून महाराष्ट्र में विलास राव देशमुख ने तो काफी पहले लागू कर रखा है। यहां कांग्रेस किसानों की खैरख्वाह बनकर घड़ियाली आंसू बहा रही है।
राज्यसभा में समर्थन कर अब एनसीपी और शरद पवार विरोध कर रहे हैं। जबकि राज्यसभा में इस ऐक्ट का विरोध नहीं किया बीजेपी इस ऐक्ट को लेकर आई है जब सरकार में नहीं थी। और नरेंद्र मोदी गुजरात के सीएम थे तो वहां उन्होंने कुछ ऐसे कदम उठाए थे जिससे यह लगता था कि वे इन कानूनों के विरोध में हैं। कुल मिलाकर स्थिति काफी गड्ड मड्ड है।
इस मुद्दे को बारीकी से समझते हैं कि यह मुद्दा है क्या ?
दरअसल यह मुद्दा सभी को समझना चाहिए। खासतौर से आंदोलनरत किसानों को। क्योंकि जो कोई भी आंदोलन होता है तो उसमें भागीदारी करने वालों को बहुत कम बातें पता होती हैं। उन्हें उतना ही बताया जाता है जितना कि आंदोलन के नेता चाहते हैं। समग्रता में बात बहुत कम रखी जाती है। दरअसल 2016 में बरेली की एक स्पीच में मोदी ने कहा था कि हम 2022 तक किसानों की आमदनी दूनी कर देंगे। जाहिर है यह आसान काम नहीं है। इसके लिए सरकार सात स्टेप उठाए। इनमें से एक स्टेप किसानों को ओपन मार्केट से जोड़ना और किसानों को खेती के पारंपरिक ढांचे से बाहर निकल कर खेती करने के लिए प्रेरित करना है। नए कृषि सुधार कानून में इस बात पर काफी जोर दिया गया है। पर यह जिस तरह से पास किया गया। उस पर सवाल उठने लगा।
क्या यह ऐक्ट संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है ?
कोई भी ऐक्ट संविधान के खिलाफ है इसका फैसला दो आधारों पर होता है । एक तो उसका कंटेंट और दूसरा उसे पास करने वाले प्रोसीजर यानी प्रक्रिया को लेकर। सबसे पहले कंटेंट की बात। कंटेंट की दृष्टि से कोई भी कानून तब असंवैधानिक हो जाएगा जब वह संविधान की मूल भावना यानी मौलिक अधिकारों के खिलाफ है। अगर मूल अधिकारों के खिलाफ है तो उसका उतना हिस्सा स्वतः रद्द माना जाता है। यह संविधानमें धारा 13 में लिखा है कि जिस भी ऐक्ट में मूल अधिकारों की भावना का हनन होता दिखेगा वह खुद निष्प्रयोज्य हो जाएगा।
जहां तक कृषि कानूनों की बात है तो इसे कोई भी नहीं कह रहा है क यह मूल अधिकारों के खिलाफ है। हां यह आजीविका के खिलाफ कहा जा सकता है। किसान कह सकते हैं कि हमारे जीवन के अधिकार के खिलाफ है । पर यह व्याख्या की बातें हैं। सही मायनों में इससे सीधे तौर पर जीवन के अधिकार पर हमला होता नहीं दिख रहा है। किसानों का कोई वकील भी यह कहने से बच रहा है कि यह मूल अधिकारों का निषेध करने वाला कानून है। इसके निरस्त होने का दूसरा ग्राउंड तब बनेगा जब यह संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर के खिलाफ हो। इस कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ की गई हो।
क्या यह कानून भारतीय संघवाद (फेडरेलिज्म) का उल्लंघन करता है ?
इसका मतलब यह होता है कि क्या राज्य के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी करके यह कानून पारित किया गया है ? जो लोग यह कहते हैं कि यह संविधान के फेडरल स्ट्रक्चर के खिलाफ है इसलिए खारिज हो जाएगा इसमें बहुत दम नहीं है, क्योंकि कृषि राज्य सूची का विषय है। कुछ लोगों का कहना है कि केंद्र ने अतिक्रमण करके राज्य सूची के विषय पर कानून बना दिया है । इसमें अगर साबित हो गया कि केंद्र की गलती है तो सुप्रीम कोर्ट इसे सीधा खारिज कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट को केंद्र राज्य डिस्प्यूट होने पर ऐसा करने का अधिकार है ।
इस कानून की संवैधानिकता को स्पष्ट करने के लिए इन दो अनुच्छेद का इस संबंध में जिक्र करना प्रासंगिक होगा। एक अनुच्छेद 246 दूसरा 254। अनु. 246 के अंतर्गत किस विषय पर राज्य और किस पर केंद्र कानून बनाएंगे इसका निर्धारण है। संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन विषय हैं राज्य सूची, केंद्र सूची और समवर्ती सूची। इसमें समवर्ती सूची ऐसी है जिसमें केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं। मगर समवर्ती सूची के कानून में राज्य और केंद्र के बीच मतभेद हो जाने पर संसद यानी केंद्र के बनाए कानून को ही प्राथमिकता मिलेगी।
राज्य का कानून शून्य हो जाएगा। यह आर्टिकिल 254 में लिखा है। इसे ‘डॉक्ट्रिन ऑफ फेडरल सुप्रीमेसी’ कहते हैं। यानी संसद की सर्वोच्चता का सिद्धांत। सेंटर और स्टेट में जब भी झगड़ा होगा तब सेंटर की ही सुप्रीमैसी मानी जाएगी अगर वह संविधान करी मूल भावना या मूल ढांचे के खिलाफ नहीं है।
कृषि राज्य सूची का विषय तो केंद्र ने कैसे बनाया कानून:
एक सवाल कुछ लोग य उठा रहे हैं कि कृषि तो राज्य सूची का विषय है फिर केंद्र ने इस पर कैसे कानून बना दिया ? लेकिन यह कमजोर प्रावधान है। कैसे इसे इस तरह समझिए। 1954 में नेहरू जी को यह बात समझ में आ गई थी उन्होंने कहा कि अगर हम कृषि में सारे पॉवर राज्य को दे देंगे तो लैंड रिफॉर्म कैसे करेंगे। 1951 से पहले ही उन्होंने लैंड रिफॉर्म को नवीं अनुसूची में डाल दिया ताकि सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा से बचा जा सके। इसी क्रम में पंडित नेहरू ने संविधान का तीसरा संशोधन कर दिया। उन्होंने समवर्ती सूची के आर्टकिल 33 में संशोधन करा दिया ।
इसके मुताबिक प्रोडक्शन,सप्लाई, कंट्रीब्यूशन, ट्रेड और कॉमर्स जो भी कृषि के अन्य प्रावधान हैं उनमें केंद्र को भी कानून बनाने का अधिकार मिल गया। चूंकि कृषि से ही ट्रेड और कॉमर्स जुड़े हैं अतः इस संशोधन से केंद्र को कृषि के क्षेत्र में भी कानून बनाने का अधिकार हासिल हो गया। मतलब समवर्ती सूची की एन्ट्री नंबर 33 कृषि संबंधी अधिकार राज्य के साथ केंद्र को भी देती है। जो लोग कृषि को राज्य सूची का विषय बताते हुए यह कह रहे हैं कि केंद्र ने यह अनाधिकार चेष्टा की है यह सुप्रीम कोर्ट में ले जाने पर खारिज हो जाएगा।
उन्हें यह जान लेना चाहिए कि सरकार ने जितने भी कृषि संशोधन बिल पास किए हैं वह समवर्ती सूची की एंट्री नंबर 33 के आधार पर किए हैं। इसलिए यह कहना है कि केंद्र ने राज्य के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करके यह कानून पास किया है तो वे गलत हैं।
कानून पास करने में प्रोसीजरल गलती का तर्क भी बेदम :
कानून के संवैधानिक स्थिति को लेकर जो लोग प्रोसीजरल मिस्टेक (प्रक्रिया संबंधी गलती) की बात कर रहे हैं और कह रहे हैं कि इस ऐक्ट को पास करने में प्रोसीजरल मिस्टेक हुई है।मगर यह धारणा भी निर्मूल है। हां अलबत्ता सरकार ने इस विरोध को आमंत्रित करने के लिए शरारत जम कर की है। एक तो इसे पास कराने का सरकार ने ऐसा समय चुना जब कोरोना के भय से सभी घर में दुबके हुए थे। मानसून कालीन संसद भी नहीं चली। इसलिए पहले अध्यादेश लाकर सरकार ने इस कानून को पास करने का रास्ता साफ कर लिया। बाद में लोकसभा में अपने प्रचंड बहुमत का लाभ उठाकर यह बिल पास करा लिया।
दूसरी ओर राज्यसभा में बहुमत न होने पर भी उसे बड़ी ही चालाकी से मैनेज करके पास करा लिया। वह भी कोई अवैधानिक तरीका नहीं था। अलबत्ता उसे नॉन एथिकल (अनैतिक) कह सकते हैं। पर इसका कानून के नजरिए से कोई महत्व नहीं। अगर राज्यसभा में जिस तरह से यह बिल पास कराया गया है उसको प्रोसीजरल मिस्टेक बताते हुए कोई सुप्रीम कोर्ट में जाता है तो आर्टकिल 122 में यह प्रावधान है कि संसद के भीतर क्या कार्रवाई हुई इस बात पर सुप्रीमकोर्ट या हाईकोर्ट कोई विचार नहीं कर सकता। संसद इस मामले में पूरी तरह से संप्रभु है।
क्या मोदी सरकार विरोध के लिए तैयार थी ?
मोदी सरकार यह समझ चुकी है कि कृषि क्षेत्र में जब तक कोई बड़ा सुधार नहीं होगा तब तक न तो किसानों की आमदनी बढ़ेगी न ही खेती किसानी के दिन बहुरेंगे। जो तीन कानून बने हैं दरअसल वह एक बड़ा सुधार ही है। सरकार जानती है कि इसका विरोध तो होगा ही। वीपी सिंह का ओबीसी आरक्षण ध्यान है। कितना बवाल हुआ था। वह लागू हो ही गया। लोगों को आरक्षण के साथ जीने की आदत पड़ गई। जब भी कोई बड़ा रिफार्म होता है हंगामा होता ही है। यह बात इस सरकार को अच्छे से पता थी।
दरअसल दूसरे कार्यकाल में प्रचंड बहुमत से सरकार का कान्फिडेंस चरम पर है। ऐसे में शुरू के तीन साल वह रौद्र रूप में रहेगी और अपने सारे बड़े एजेंडे लागू करेगी। इस कानून के बाद अब जनसंख्या बिल व समान नागरिक संहिता का नंबर है। धारा 370 सीएए और राम मंदिर का कांटा तो निकल ही गया आखिरी दो साल जब चुनाव नजदीक होगा वह सरकार का हनीमून पीरियड होगा। अच्छी अच्छी बातें होंगी जनता के लिए ठंड़ी फुहारें मिलेंगी।
अब जानें क्या कहता है कृषि सुधार बिल:
नए ऐक्ट में किसान को सुविधा है कि वह एपीएमसी के बाहर ट्रेड एरिया में अपने माल को बेच सकता है। यह एरिया फार्म हाउस, वेयर हाउस , फैक्ट्री गेट कोल्ड स्टोरेज कुछ भी ट्रेडिंग एरिया हो सकता है। एपीएमसी में ही किसान बेचे यह बाध्यता खत्म कर दी गई। वन नेशन वन प्रोडक्ट वन बाजार के तहत वह देश में कहीं भी अपना माल बेचने को स्वतंत्र हो गया है।
कानून किसानों के लिए कैसे है हितकारी समझिए :
पूर्व आईएएस डॉ. विकास दिव्यकीर्ति के मुताबिक ये तीनों ऐक्ट अपनी मूल भावना में अच्छे हैं और इन्हें कुछ संशोधनों के साथ चलना चाहिए। वे कहते हैं किसानों को किसी के बहकावे में न आकर इस ऐक्ट को बारीकी से पढ़ना चाहिए। उन्हें तब पता चलेगा कि इसमें उनके फायदे की बात ज्यादा है।जब आप फैक्ट्री का बना सामान दुनिया के किसी कोने में बेच सकते हैं तो किसान अपने उत्पाद को अपनी मनचाही जगह राज्य ,जिला, शहर में क्यों नहीं बेच सकता? वह एपीएमसी के दायरे में कब तक अपना उत्पाद बेचकर शोषित होता रहेगा और मुफलिस बना रहेगा।
एपीएमसी की जरूरत क्यों पड़ी ?
आजादी के बाद साहूकारों के शोषण से बचाने के लिए सरकार ने एपीएमसी (कृषि उत्पाद, विक्री समिति) बनाई। यहां किसानों को सुविधा थी कि वे वहां जाकर अपना माल आढ़तिए के आढ़त पर बेच सकते थे। साहूकारों के शोषण से मुक्त होने का यह एक बेहतर विकल्प किसानों के सामने आया। पर कालांतर में ये समितियां भी किसानों के शोषण का अड्डा बन गईं। अपने खेत से माल लेकर वहां पहुंचाने तक किसानों के लगभग 12 से 13 प्रतिशत टैक्स ट्रांसपोर्टेशन आदि में खर्च हो जाते हैं। मंडी में आढ़त का टैक्स ढाई प्रतिशत, पाकशाला टैक्स, धर्मादा, पल्लेदारी आदि किसानों से ही काटे जाते हैं।
नतीजे में किसान का जो आलू वह पांच रुपये किलो में आढ़त पर बिकता है उसके आठ, दस गुना लाभ बिचौलियों के हिस्से में चला जाता है। यानी जो आलू खुले बाजार में 40 रुपये का बिका उसे पैदा करने से लेकर बाजार तक पहुंचाने के सारी जोखिम झेलने वाले किसान के हिस्से आए सिर्फ पांच रुपये। अब नया कृषि कानून यह उसे सहूलियत देता है कि वह ऑनलाइन ट्रेडिंग के जरिए यह पता कर सकता है कि उसके उत्पाद की कीमत कहां अच्छी मिल रही है वहां वह अपना उत्पाद बेच सकेगा। उसका शोषण रुकेगा।
नए कानून के खतरे और आशंकाएं :
एपीएमसी से बाहर जिसकिसी के पास पैन कार्ड हो वह किसानों से खरीद कर सकता है ट्रेडिंग कर सकता है। पर इसमें ट्रेडिंग कार्टेल बनने का खतरा है। यानी एपीएमसी के कार्टेल से बचने का प्रावधान लाया गया तो किसान एक दूसरे कार्टेल में न फंस जाय। इसका तरीका है कि प्राइवेट मंडी को भी टैक्स के दायरे में लाया जाना चाहिए। जितने परचेजर हैं उनका सही तरीके से वेरीफिकेशन और रजिस्ट्रेशन हो ताकि किसानों के साथ धोखाधड़ी न हो सके। राष्ट्रीय कृषि प्राधिकरण बना दिया जाय जो किसान से जुड़े मामलों को सुलझाए। इसमें कुछ जुडिसियरी के लोग हों कुछ कृषि के एक्सपर्ट शामिल किए जाएं।
कृषि सशक्तिकरण और सुरक्षा ( कांट्रैक्ट फार्मिंग)
इसके तहत अगर किसी से कांट्रैक्ट करके उसकी मांग के अनुसार फसल उगाए।उसे ज्यादा फायदा और सहूलियत होगी। पहले व्यवस्था है कि किसान अपना उत्पाद केवल एपीएमसी की ट्रेडिंग एरिया में ही बेचने को बाध्य था। उसकी यह बाध्यता खत्म करने के लिए विकल्प के तौर पर कांट्रैक्ट ट्रेडिंग का प्रावधान लाया गया।
कांट्रैक्ट करने के प्रावधान में हो सुधार :
इस ऐक्ट में कांट्रैक्ट की बात तो कर दी गई है पर उसके लिए जो मॉडल एग्रीमेंट का फार्मेट सरकार को देना चाहिए वह नहीं दिया है। उसमें केवल एग्रीमेंट का एक प्रोफार्मा मॉडल दे दिया है। इसमें आशंका यह है कि कंपनियां अच्छे वकील रखकर मॉडल कांट्रैक्ट अपने मनमाफिक बनवा सकेंगी और किसान उसके दुष्चक्र में फंस सकता है।
- सरकार को चाहिए कि वह खुद मॉडल एग्रीमेंट का फार्मेट तैयार करे और कांट्रैक्ट करने वाले को उसी फार्मेट पर किसान से करार करना अनिवार्य हो।
- किसान को हर हाल में उसके उत्पाद का लाभकारी मूल्य मिले इसके लिए प्राइस एश्योरेंस गारंटी होनी चाहिए।
- एपीएमसी को लेवल प्लेइंग करने के लिए प्राइवेट मंडियों को भी टैक्स के दायरे में लाया जाय।
महाराष्ट्र प्रइवेट प्लेयर के बावजूद एपीएमसी का कब्जा 75 फीसदी बाजार पर :
कांग्रेस आज भले ही कृषि कानून के विरोध में है लेकिन उसने महाराष्ट्र में सबसे पहले नये कृषि कानून के तहत एपीएमसी के समानांतर प्राइवेट मंडियां लेकर आई और वहां न एपीएमसी खत्म हुई न किसानों को कोई दिक्कत हो रही है। प्राइवेट मार्केट महाराष्ट्र में 18 हैं। सरकार समय समय पर उनकी सुविधाओं की समीक्षा करती रहती है। वहां कोई दिक्कत नहीं है। महाराष्ट्र ने अब तक 1100 लाइसेंस बांटे हैं। वहां भी हो हल्ला हुआ कि एपीएमसी खत्म हो जाएगी। मगर वहां इस साल का आंकड़ा देखें तो एपीएमसी ने 48000 करोड़ का कारोबार किया जबकि प्राइवेट मार्केट और मंडियों ने 11000 करोड़ का कारोबार किया। यानी कुल कारोबार का मात्र 22 प्रतिशत उनके हिस्से आया। कुल मिलाकर अभी भी 75 प्रतिशत काम एपीएमसी के माध्यम से हो रहा है। इसलिए यह आशंका कि एपीएमसी को यह कानून खत्म कर देगा निर्मूल है। महाराष्ट्र का प्रयोग तो इस आशंका को दूर कर रहा है।
नए कानून में खेती से जुड़े सभी उत्पाद, डेयरी फिशरी आद सभी में कांट्रैक्ट पीरियड कितना हो यह नए कानून में तय है
- फसल के लिए : एक फसल से लेकर पांच साल तक
- डेयरी उत्पाद का एग्रीमेंट हो तो उसका समय एक लैक्टोज पीरियड तक होगा
- प्राइस निर्धारण – इसके दो मैकेनिज्म है। एक तो दोनों पार्टी एक प्राइस पहले ही फिक्स कर लें कि हम इस भाव पर खरीदेंगे।
- दूसरा फ्लेक्सिवल हो ताकि बाजार में अगर कांट्रैक्ट में तय दर से ज्यादा भाव हो तो किसान को वह दर मिले मगर भाव कम होने पर उसे कांट्रैक्ट में तय दर ही मिले।
डिलिवरी मैकेनिज्म –
इसके अंतर्गत व्यवस्था है कि जिस दिन डिलीवरी होगी उसी दिन सारी पेमेंट करनी होगी। अधिकतम एक दिन का समय ले सकते हैं। प्रोसिजरल समस्या होने पर अधिकतम तीन दन में पेमेंट करना होगा।इसका लिखित एश्योरेंस देना होगा।
किसान का खेत कांट्रैक्ट कंपिनयों को चले जाने की आशंका –
- नए कृषि कानून में यह प्रावधान है जिससे किसान का खेत न तो गिरवी हो सकता है न ही उसका मालिकाना हक छिन सकता है।
- किसान के खेत में कोई स्ट्रक्चर नहीं खड़ा कर सकेगा, अगर ऐसा स्ट्रक्चर बनता है तो वह किसान और स्पांसर के बीच आपसी सहमति से ही बनेगा मगर कांट्रैक्ट खत्म होते ही उसे तोड़ दिया जाएगा।
- एगेरीमेंट की वैधानिकता के लिए कमेटी बनाने की बात कही गई है।
- कांट्रैक्ट एक्ट में सेक्शन 56 है। इसके अंतर्गत अगर कोई कांट्रैक्ट होता है। इसमें अगर कोई अचानक आपदा आ गई और शर्त का उल्लंघन हो गया। इसके लिए फोर्स मेजर क्लाज का प्रावधान है। इसके तहत अपिरहार्य कारण प्राकृतिक या अन्य आपदा के तहत उसे सुरक्षा मिली है।
विवाद निपटारे का प्रावधान :
हर एग्रीमेंट के अंदर एक कंशिलिएशन बोर्ड होगा (समझौते के तहत फैसले का क्लाज)कोर्ट कचहरी की लंबी प्रक्रिया से बचने के लिए कंसिलिएशन बोर्ड बनाने की बात है। अगर कंसिलिएशन बोर्ड के फैसले के बाद किसी क्लाज को समझौते में मेंशन न किया गया हो तो उसकी अपील एसडीएम कोर्ट में की जाएगी। इसमें भी अगर फैसला नहीं हुआ तो अंतिम अपील कलेक्टर के पास होगी।
पेनाल्टी : अगर स्पांसरर कांट्रैक्ट तोड़ता है तो उस पर डेढ़ गुना पेनाल्टी है। पर यही समझौता अगर किसान तोड़ता है तो उससे मात्र जितना खर्च हुआ है उतना ही देने को कहा जाएगा।
सुझाव : कांट्रैक्ट के लिए यह कर सकते हैं किसान
कांट्रैक्ट अलग अलग करने के बजाय अगर कई गांवों के किसान अपना (एफपीओ)
फार्म प्रोड्यूसर्स आर्गनाइजेशन बनाकर कांट्रैक्ट करें तो वे ज्यादा मजबूत होंगे। एफपीओ कोआपरेटिव जैसा कंसेप्ट है। इसके अंतर्गत अगर दस गांवों के किसान एक कोआपरेटिव फार्मिंग जैसी संस्था बना लें। अगर किसान आपस में संगठन नहीं बना सकते तो एग्रीगेटर से मदद ले सकते हैं। इसके लिए एग्रीगेटर को सेगमेंट का हिस्सा बना सकते हैं।
नए कृषि कानून के ये होंगे फायदे :
युवा खेती की तरफ आकर्षित होंगे :
इस नए कृषि कानून में इनोवेशन के मौके हैं। खेती एक वेंचर होगा। नई पीढ़ी आकर्षित होगी। खेती का मिजाज बदलेगा। फसलों का पैटर्न बदलेगा। एक्सपर्ट कह रहे हैं कि हम क्रॉप पैटर्न बदलें। यह पर्यावरण के लिए भी बेहतर होगा।
नए कृषि कानून में यह संशोधन और हो :
इसमें सिविल कोर्ट को भी विवाद की स्थिति में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। सबसे बेहतर हो कि मॉडल कांट्रैक्ट बना दfया जाय ताकि कल कोई एग्रीमेंट करने वाला अपने मुताबिक अच्छे वकील से अपने फायदे का ड्राफ्टिंग करा कर फायदा न उठा सके।
एमएसपी क्या है ?
इकोनॉमिक्स को खुले बैल की तरह छोड़ना बेहतर नहीं होता। सब्सिडी इंटरवेंशन एक अच्छा तरीका है। सरकार एक फ्लोर प्राइस तय करती है। इसके तहत सरकार एक गारंटी देती है कि तुम्हारा माल इस घोषित रेट पर न बिके तो हमारे पास आ जाना हम सब खरीद लेंगे।
- एमएसपी में सात प्रकार के अनाज हैं गेहूं धान प्रमुख है, पांच प्रकार की दालें और आयल सीड्स हैं ।
- इसके अलावा कॉमर्शियल फसलें हैं, गन्ना, कपास, जूट आदि को लेकर 23 फसलों पर एमएसपी है। सरकार सिर्फ खरीदती है गेहूं और चावल।
- इन पर एमएसपी नहीं मिलता – फल सब्जी, फूल डेयरी फिशरी आदि पर।
एफसीआई का भ्रष्टाचार और एमएसपी का हाल :
एमएसपी सिर्फ 6 प्रतिशत को ही मिलती है। एफसीआई पर चरम भ्रष्टाचार है। उनके पास वेयरहाउस ही नहीं है। जब किसान लेकर जाता है तो कहते हैं कि हमारे पास जगह ही नहीं है। तीन दन बाद आना। इसी का फायदा कुछ ट्रेडर्स उठाते हैं। उनकी एफसी आई से मिलीभगत होती है जो किसान के नाम पर किसान की मजबूरी का फायदा उठाकर कम दाम में खरीद कर उसी किसान का कागज पर नाम दर्ज करके वापस एफसीआई को बेच देते हैं। कागज पर किसान का नाम और एमएसपी दर्ज बिचौलियों से या साहूकारों से एफसीआई के भ्रष्ट मुलाजिमों ने एमएसपी से कम पर खरीदा और बीच का डिफरेंस अपने जेब के हवाले कर दिया। यही रोल हो गया है एफसीआई का।
एफसीआई के गठन की जरूरत क्यों पड़ी :
एफसीआइ के माध्यम से हमने क्यों खरीद का सिस्टम शुरू किया। दरअसल1965-66 में भारत में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। 1965 में पाकिस्तान से युद्ध भी हुआ। बंगलादेश के शरणार्थी आ गए थे। अमेरिका हमें पीएल 4 केतहत अनाज देता था और तमामनखरे करता था। हमारे पास फूड सेक्योरिटी नहीं थी। इसी फूड सेक्योरिटी को लाने के लिए ग्रीन रिवाल्यूशन लाई गई। नॉर्मन बोरलाग और एम स्वामीनाथन इसके जनक हुए। इसके तहत अच्छे बीज, पेस्टीसाइड्स, फर्टीलाइजर का प्रयोग पंजाब आदि में खूब कराया गया। किसानों को मोटीवेट करने के लिए एमएसपी का कांसेप्ट लाया गया। इसका मकसद था कि हम इतना उत्पादन कर लें खाद्यान्न कि हम आमनिर्भर हो जाएं।
आज हम फूड का एक्सपोर्ट करते हैं। हम इंपोर्टर नहीं रह गए। इसका फायदा तो हुआ। ऐसे में देश में फूड सेक्योरिटी हो जाने के बाद एफसीआई की जरूरत ही नहीं? पर राजनीतिक फायदे के लिए के इसको बनाए रखना जरूरी है। मनमोहन सरकार ने नेशनल फूड सेक्योरिटी एक्ट पारित कर दिया। यह दुनिया की सबसे बड़ी सोशल सेक्योरिटी स्कीम है। इसके तहत 80 करोड़ लोगों को फूड सेक्योरिटी दे दी गई। मामूली दाम पर इसके तहत गेहूं धान उपलब्ध कराया जाता है। जाहिर है एफसीआई को तो रखना ही होगा।
एमएसपी का निर्धारण और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें :
1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति का फल
अगर अगले दो दशकों तक देखें तो 90 के दशक में कृषि सेक्टर की रफ़्तार धीमी हुई। शायद इसीलिए हरित क्रांति के जनक कहे जाने वाले प्रोफ़ेसर स्वामीनाथन की अगुआई में बनी एक कमिटी ने साल 2006 में कुछ अहम सुझाव दिए:
- फ़सल उत्पादन क़ीमत से 50% ज़्यादा दाम किसानों को मिले।
- किसानों को कम दामों में क्वालिटी बीज मुहैया कराए जाएं।
- गांवों में विलेज नॉलेज सेंटर या ज्ञान चौपाल बनाया जाए।
- महिला किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड मिले।
- किसानों को प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में मदद मिले।
- सरप्लस और इस्तेमाल नहीं हो रही ज़मीन के टुकड़ों का वितरण किया जाए।
- खेतिहर जमीन और वनभूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कॉरपोरेट को न दिया जाए।
- फसल बीमा की सुविधा पूरे देश में हर फसल के लिए मिले।
- खेती के लिए कर्ज की व्यवस्था हर गरीब और जरूरतमंद तक पहुंचे।
- सरकारी मदद से किसानों को मिलने वाले कर्ज की ब्याज दर कम करके 4% की जाए।
मौजूदा व्यवस्था में किसानों का कहना है कि इनमें से बहुत अभी लागू नहीं हुई है और उन्हें ज़्यादा मंडियाँ और कॉंट्रैक्ट फ़ार्मिंग में सुरक्षा देने वाले क़ानून चाहिए। जबकि सरकार कहती है कि ख़राब मार्केटिंग के चलते किसान को अच्छा दाम नहीं मिल रहा है, इसलिए निजी कम्पनियों और स्टोरेज वेयरहाउज़ेज़ को लाने से वैल्यू चेन में किसानों का क़द बढ़ेगा। 2004 में राष्ट्रीय कृषक आयोग बनाया गया। स्वामीनाथन की अध्यक्षता में। यह एमएसपी का निर्धारण करती है। एमएसी तय करने का सी 2 फार्मूला – इसके तहत स्वामीनाथन कमेटी ने बीज ट्रांसपोर्टेशन, फेमिली, लेबर, को जोड़कर डेढ़ गुना एमएसपी तय करने की सिफारिश है पर अभी इस पर सहमति नहीं बन पाई है। सरकार ए 2 फार्मूले के आधार पर ही एमएसपी तय करती है।
आंदोलन में पंजाब हरियाणा के किसान क्यों
दरअसल ग्रीन रिवॉल्यूशन के कारण पंजाब में खूब किसानों ने गेहूं धान उपजाया। इसका लाभ उन्हें मिला और वहां के किसान सबसे ज्यादा समृद्ध हुआ। वहां बड़े किसान हैं। वे बेचारा किसान नहीं हैं। पंजाब हरियाणा ग्रीन रिवॉल्यूशन के जमाने से पूरे देश के किसानों से आगे हैं। तभी से एमएसपी का कांसेप्ट आया। पंजाब और हरियाणा की पूरी इकोनॉमी एमएसपी पर टिकी है। नए कानून से पंजाब हरियाणा की पूरी कृषि इकोनॉमी ही खतरे में आ गई है। इन दोनों राज्यों का 70 फीसदी एफसीआई को जाता है। फूड क्राप्स पर ज्यादा जोर देने का नतीजा यह है कि एनवायर्नमेंटल क्राइसिस भी हो रही है। किसान कह रहे हैं कि एमएसपी की लेजिस्लेटिव गारंटी दो।
तीसरा एक्ट है एसेंशियल कमोडिटी एक्ट
1955 यह समवर्ती सूची में है। यह कालाबाजारी रोकने का कानून बना था। नए कानून में प्राइवेट प्लेयर्स के लिए बाजार खोलने पर इसमें बदलाव किया गया। सप्लाई और फूड स्टफ्स के मामले में खाद्य वस्तुएं एसेंशियल कमोडिटी के अंतर्गत नहीं आएंगी। इसके तहत कोई भी भंडारण कर सकता है। अब जब खाद्य वस्तुओं की कमी नहीं है तो उन्हें एसेंशियल कमोडिटी के अंतर्गत न रखा जाय आपात हालात को छोड़कर। एक्साआर्डिनरी कंडीशन में ही भंडारण रोका जा सकता है। उसे आवश्यक वस्तु घोषित करके उसका भंडारण एक सीमा तक ही किया जा सकता है।
- फूड प्रासेसिंग industry को इंस्टाल्ड कैपेसिटी के मुताबिक उतनी क्वांटिटी के भंडारण का अधिकार एक्सट्रा आर्डिनरी कंडीशन में भी होगा। किसान कह रहे हैं इससे काला बाजारी बढ़ेगी।
- सरकार की नीयत कृषि सुधार की होनी चाहिए। साउथ कोरिया में अगर आप 40 रुपये किलो सब्जी मिलती है तो किसान की जेब में 32 रुपये जाते हैं। जबकि यहां उल्टा है।
इस कृषि कानून में सबसे बड़ी बात गलतफहमी की है। सरकार ने किसानों को कान्फिडेंस में नहीं लिया अपनी बात कहने आ भी रहे तो उनके साथ बहुत खराब व्यवहार किया। इसे पूरे देश में आक्रोश पनपा। सरकार को खुल कर बात कह देना चाहिए कि हम एमएसपी रखेंगे। अगर चेंज भी हो तो लंबे समय में न कि एक झटके में।
नए उद्यमियों का रेगुलेशन होना चाहिए
लीगल इंटरवेंशन के लिए कोर्ट का हस्तक्षेप होना चाहिए। सरकार को दबाव में आकर तीनों कानून वापस न लेकर उसमें संशोधन करना चाहिए। यह वक्त की जरूरत है। कृषि सुधार की बहुत जरूरत है। किसानों को भी चाहिए कि वे बदलाव के लिए तैयार हों। किसानों की दुनिया में अमीर और मध्य वर्ग के किसान यह न मान कर चलें कि इस पर सिर्फ उनका ही हक नहींहै। वे गरीब किसानों की भी सोचें। बीच का रास्ता ठीक होता है।
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