इमरजेंसी की एक दुखांत कहानी



नरेश मिश्र

आज का दिन मुल्क के इतिहास में रोमांचकारी मोड़ के रूप में दर्ज है। आज ही के दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने श्रीमती इंदिरागांधी के खिलाफ फैसला सुनाया था। वे रायबरेली संसदीय सीट से राजनारायण को हराकर चुनाव में विजयी हुई थीं। राजनारायण ने उनके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया था। सुनवाई जस्टिस जगमोहन लाल सिनहा की कोर्ट में हो रही थी। सुनवाई में इस बिंदु पर भी बहस हुई कि गाय बछड़ा हिंदू धर्म का चिन्ह है कि नहीं। सनातन धर्म का पक्ष रखने के लिए पंडित रघुबर दास मिट्ठू लाल शास्त्री राजनाराण की ओर से गवाह के रूप में शामिल हुए। इंदिरागांधी की ओर से बीएचयू के संस्कृत विभाग से जुड़े एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण आचार्य ने गवाही दी। 

बताते चलें कि पंडित रघुबर लाल मिट्ठू लाल शास्त्री जन्मना कायस्थ थे। वे इलाहाबाद यूनिवर्सिसटी के संस्कृत विभाग में प्रोफेसर थे। मेरे स्मृति पटल पर उनका ऋषितुल्य चेहरा आज भी अंकित है। लंबी दाढ़ी, लंबे बाल, बगल बंडी धोती और गोरक्षक चप्पल पहने वे प्राचीन काल के ऋषियों जैसे प्रतीत होते थे। उन्होंने संस्कृत साहित्य वैदिक साहित्य, उपनिषद दर्शन का गहराई से अध्ययन किया था। वे जब संस्कृत विभाग से पढ़ाकर निकलते तो हम लोग उनके सम्मान में खड़े हो जाते। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में गवाही के दौरान बीएचयू के ब्राह्मण प्रोफेसर की ओर इशारा करते हुए कहा था कि हम दोनों की लकड़ियां श्मशान में पहुंच चुकी हैं। हम दोनों जीवन के चौथे चरण में हैं। 

ऐसे में हम दोनों को सत्य बोलना चाहिए। आप कैसे गाय बछड़े को सनातन धर्म का प्रतीक नहीं मानते। इमरजेंसी की घोषणा हुई तो मैं आकाशवाणी इलाहाबाद में स्क्रिप्ट राइटर के रूप में सेवारत था। राजकाज के दौरान इंदिरागांधी और इमरजेंसी की प्रशंसा करना। आकाशवाणी परिसर से निकलते ही इंदिरागांधी की कड़ी आलोचना करना। रास्ते में अपनी इस विवशता को कोसना कि परिवार के भरण-पोषण के लिए नौकरी क्यों की। यही दिनचर्या थी। कम्युनिस्ट पार्टियों ने इमरजेंसी में इंदिरागांधी का समर्थन किया था। गांधीवादी विचारक आचार्य विनोबा भावे ने इमरजेंसी को अनुशासन पर्व करार दिया था। जनता के लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए थे। हजारों नेता जेल की सलाखों में बंद थे। मीसा बंदियों में समाजवादी पार्टी और आरएसएस, जनसंघ के कार्यकर्ताओं, नेताओं की संख्या ज्यादा थी। उनमें एक चेहरा मेरी स्मृति पटल पर आज भी कौंध जाता है। वे थे सत्यव्रत सिन्हा। आरएसएस से जुड़े थे। 

प्रयाग रंगमंच के संस्थापकों में शुमार थे। थिएटर, नाटक और साहित्य में प्रवीण थे। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट की वसंत ऋतु हमेशा देखी जा सकती थी। उन दिनों आकाशवाणी का ग्राम पंचायत विभाग रुद्रकार्तिकेय के प्रसिद्ध उपन्यास ‘बहती गंगा’ का धारावाहिक प्रसारण कर रहा था। इस उपन्यास का रेडियो नाट्य रूपांतरण सत्यव्रत सिन्हा जी को सौंपा गया था। सप्ताह में एक बार आधे घंटे के लिए लोकायतन कार्यक्रम में इसका प्रसारण होता था। इस सिलसिले में सत्यव्रत जी से उनके तुलाराम बाग स्थित आवास पर मुझे जाना पड़ता था। वे मुस्कुराते हुए मिलते। पहले जलपान कराते, फिर चाय पिलाते। तब नाटक की बात चलती। 

एक बार मैंने मजाक में उनसे पूछ लिया। सिन्हा जी क्या आप हर मौसम में इसी तरह मुस्कुराते रहते हैं। वे हंसकर बोले मुस्कुराहट जिंदगी की सबसे बड़ी ईश्वरीय देन है। इसलिए इंसान को हर हाल में खुश रहना चाहिए। वह खुश न भी हो तो भी दुनिया को दिखाने के लिए उसे मुस्कुराना चाहिए। सत्यव्रत सिन्हा को गिरप्तार करके नैनी जेल में बंद कर दिया गया। जेल में वे बीमार पड़े। उनका ठीक तरह से इलाज नहीं किया गया। अंत में हेमवतीनंदन बहुगुणा के पैरवी करने पर उन्हें मुश्किल से रिहाई मिली। लेकिन जीवन की डोर उनका साथ छोड़ चुकी थी। जेल से रिहा होने के बाद वे कुछ ही दिन जीवित रहे। उनका देहावसान इमरजेंसी की सबसे बड़ी ट्रेजेडी थी जो मुझे मेरे अंतस को भेद गई। 

बाद में एक डॉक्युमेंट्री निर्माण के सिलसिले में मैं निवर्तमान जस्टिस जगमोहन सिन्हा का इंटरव्यू लेने उनके आवास पर गया। वे रात में ही झांसी से वापस लौटे थे। उनके बेटे ने मुझसे कहा आप किसी दिन दोबारा इंटरव्यू के लिए आइएगा। अभी जज साहब सो रहे हैं। हम रेकॉर्डिंग मशीन लेकर वापस लौट रहे थे। तभी सीढ़ियों से आवाज आई। रुकिए! चाय पीजिए, मैं अभी दस मिनट में आता हूं। वे जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा थे। इसका विश्वास करना कठिन था। दस मिनट बाद वे नीचे उतरे इंटरव्यू दिया। इंटरव्यू खत्म हुआ तो मैंने ऑफ द रिकॉर्ड पूछ लिया। आपने इंदिरागांधी के खिलाफ फैसला क्या सोचकर सुनाया। वे हंसकर बोले। 

जस्टिस कोई फैसला सुनाते समय किसी इंसान की शख्सियत और हैसियत का विचार नहीं करता। वह संविधान और कानून पर विचार करता है। जो ऐसा नहीं करता उसे न्यायमूर्ति कहलाने का हक नहीं है। हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है क्योंकि हमारे कोर्टों में जस्टिस जगमोहन लाल श्रीवास्तव की बात का समर्थन करने वाले न्यायमूर्तिगण मौजूद हैं। उनकी टिप्पणियां तल्ख हो सकती हैं। वे परंपरा और तथ्य का उल्लंघन भी कर सकते हैं। ऐसे कई उदाहरण मैं दे सकता हूं। लेकिन कुल मिलाकर उनका नजरिया जनहित में होता है। 


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