- अनजानों के तर्पण के लिए मनाया जाता बुंदेलखंड में महबुलिया का पर्व
- महबुलिया का पावन पर्व, यह पितृ पक्ष में आता है। कांटों के बीच रह कर भी, फूलों जैसा मुस्काना सिखलाता है
- बना रहे आशीष पुरखों का बेटियों का मान सम्मान बढ़े गौरवशाली बुंदेली संस्कृति का, प्रखर सूर्य कुछ और बढ़े
बांदा। यूं तो बुंदेलखंड भांति-भांति संस्कृति के लिए जाना जाता है। अनोखी तहजीब और परंपरा यहां लगातार देखने को मिलती है। लेकिन जैसे जैसे नई पीढ़ी आ रही है यहां की संस्कृति और तहजीब बिलुप्त होती जा रही है। आज हम एक ऐसी ही अद्भुत और अनोखी परम्परा व त्यौहार के विषय में चर्चा करेंगे जिसे केवल छोटी व कुवांरी कन्याएं ही करती हैं और इसे बड़ी ही धूमधाम से मनाती हैं। यहां के पूर्वजों के द्वारा इसका नाम "महबुलिया" बताया जाता है। आखिर क्या है महबुलिया का त्यौहार, क्यों मनाते हैं बच्चे इसे धूमधाम से, आखिर इसके पीछे की क्या है सच्चाई। आज हम आपको बताएंगे कि आखिर क्यों मनाया जाता है महबुलिया का त्यौहार तो आइये जानते हैं इसके पीछे का सच और इतिहास।
आइये अब हम आपको बुंदेलखंड के उस अनोखे और अद्भुत खेल से जिसे यहाँ के बच्चे बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं। वैसे तो महबुलिया का पर्व अश्विन मास व कुंवार मास में मनाया जाता है। यह पूरा पर्व पितृपक्ष के दिनों में मनाया जाता है। महबुलिया पर्व बुंदेलखंड की कुँवारी कन्याओं का खेल है। इसमें नन्हें नन्हे बच्चे और कुँवारी कन्याएं फूलों को एकत्र करके कंटीली झाड़ियों में फूलों को पिरोती हैं और गाजे बाजे के साथ गीत गाते हुए पास के नदी या पोखर में इसका विसर्जन करते हैं और विसर्जन करके लौटते समय भीगे हुए चने गुड़ और लाई का प्रसाद लोगों को वितरित करती हैं। इसे पितरों के सुख समृद्धि व अपने पूर्वजों का आशीर्वाद लेने के लिए मनाया जाता है। कहीं कहीं इसे बेटियों के संरक्षण के लिए भी मनाया जाता है। क्योंकि कहीं न कहीं इस समाज मे बेटियों का जीवन कांटों से भरा होता है।
वैदिक काल के अनुसार मान्यता यह भी है कि पुराने समय में महबुलिया नाम की एक बुजुर्ग महिला थी जिसकी अकाल मृत्यु हो गई थी जिसके बाद से यह परम्परा कालांतर से चली आ रही है और इसे लोग बड़ी ही धूमधाम से मनाते हैं। इस पर्व को लेकर यह भी चर्चित है कि इसके माध्यम से अकाल मृत्यु मरने वाले लोगों नवजात बच्चों आदि के श्राद्ध के रूप में भी मनाया जाता है। बच्चों के इस अनोखे खेल में जो फूल होते हैं उन्हें उनके पूर्वजों का नाम दिया गया है और वहीं कंटीली झाड़ियों में लगे कांटों को ईश्वर का रूप बताया गया है। लेकिन कहीं न कहीं नई पीढ़ियों के बच्चों के द्वारा इस अनोखे खेल को खेलना कम कर दिया है जिसकी वजह से यह खेल अब कही कही ही देखने को मिलता है।
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