आत्मा को मुक्ति-मोक्ष वक्त के समर्थ सतगुरु के अलावा और कोई नहीं दिला सकता है : सन्त बाबा उमाकान्त

  • अवतारी शक्तियों में जीवों को पार करने की शक्ति नहीं होती है, वो तो धर्म की स्थापना और दुराचारीयों के संहार के लिए आते हैं 

कलयुग केवल नाम आधारा। सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।। 

बाहर की जड़ पूजा-इबादत से अलग असली पूजा जिससे देवी-देवताओं के दर्शन हो सके, उनके लोकों से ऊपर सतलोक जहां देवी-देवता भी जाने के लिए तरसते रहते है, वहां पहुंचने का रास्ता बताकर, रास्ते पर चलाकर, मंजिल तक पहुंचाने वाले, वक्त के सर्व समरथ पूरे सन्त सतगुरु परम पूज्य परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज ने राठ, हमीरपुर (उ. प्र.) में 19 दिसंबर 2021 को अगहन पूर्णिमा के अवसर पर दिए व यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया-

महापुरुष समझाते-बताते हैं, अगर लोग मान जाते हैं तो दया बरसा देते हैं नहीं तो काल का रूप धारण कर सजा देते हैं 

जैसे भगवान राम को ही देख लो। कई रूपों में रहे। जब उनको युद्ध करने का हुआ तो धनुष बाण उठा कर रौद्र रूप धारण कर लिया। उनमें दया भाव भी बहुत रहा, आप कथा सुनते रहते हो। ऐसे ही कृष्णा ने बहुत समझाया, कहा मान जाओ, इनको दे दो कुछ हिस्सा, इनका भी हक होता है। लेकिन कौरवों ने कहा सुई के नख के बराबर भी जमीन नहीं देंगे। तब बोले विनाश काले विपरीत बुद्धि। इनकी बुद्धि विपरीत हो गई अब तो विनाश होना ही होना है लेकिन तो भी दया भाव उन्होंने पूरी तरह खत्म नहीं किया। जो महापुरुष काम करने के लिए आते हैं जैसे भगवान- राम, कृष्ण, परशुराम आदि, ये आते हैं धर्म की स्थापना करने और दुराचारीयों के संहार के लिए तो इनके अंदर दोनों धार होती है। दया धार और काल धार। देखो खुद कहा राम ने-

कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। शुभ और अशुभ कर्म फल दाता।। 

मैं तो जो काल का काम है, वह भी करता हूं और दया भाव भी है मेरे अंदर। जो दया के घाट पर बैठता है, उसको दया देता हूं और जो काल के स्थान पर रहता है, उसको सजा भी देता हूं। 

जब कृष्ण ने कहा अब मैं जाना चाहता हूँ तब पांडवों को होश आया 

महाभारत खत्म होने के बाद जब कृष्ण ने कहा अब मैं जाना चाहता हूँ, मेरा काम पूरा हो गया। अब कलयुग आ जाएगा, द्वापर का विधान खत्म हो जाएगा तब पांडवों को होश आया। कहा भाई, कृष्ण को जाना पड़ रहा है तो हमको भी जाना पड़ेगा। 


जो सत्य है- मौत और परमात्मा, उसी को लोग भूले हुए हैं 

आज किसी को होश है कि हम को ये शरीर छोड़ना है? किसी को होश नहीं। जो सत्य है वही भूल गए हो। मौत सत्य है। मौत तो सबकी आनी ही आनी है। जिनको आप पूजते हो, भगवान मानते हो राम-कृष्ण मनुष्य शरीर में थे, वो भी चले गए। जितने भी आये मनुष्य शरीर में, सब चले गए। इस धरती का विधान ही यही है कि जो पेड़ फलता है वह झड़ता है, जो आग जलती है वह बुझती है, जो पैदा होता है वह मरता है। क्योंकि ये मृत्यु लोक है। यही यहां का नियम है। जैसे आपके समाज, जाति, देश, गांव, प्रांत का नियम है ऐसे ही कुदरत का, भगवान का भी नियम है। 

कृष्ण ने पांडवों को अपने साथ ले जाने में असमर्थता दर्शाते हुए दो टूक जवाब दिया 

तो जब पांडवों को होश आया, कहा महाराज हम लोगों को मत छोड़ना, आप अपने साथ लेकर चलो। उन्होंने दो टूक जवाब दिया, कहा तुमको मैं नहीं ले जा सकता हूं। तुम को किसी त्रिकालदर्शी सन्त की, समरथ गुरु की खोज करना पड़ेगा। उनसे रास्ता लेकर योग साधना करनी पड़ेगी। तब तुम मेरे धाम जा सकते हो, देख सकते हो, अपने धाम भी जा सकते हो। 

अब अपना धाम और उनका (कृष्ण का) धाम कहां है 

समझो जैसे आपका जो यह धाम है चित्रकूट, जगन्नाथ, बद्रीका धाम आदि जहां-जहां आप जाते हो, ये आपका धाम नहीं है। आपका धाम ऐसी जगह है जहां कभी अंधेरा होता ही नहीं है, सूरज डूबता ही नही है, कोई गंदगी नाम की चीज़ ही नहीं है, कोई दुःख नही है। सुख ही सुख है, आनंद ही आनंद है। जहाँ जाने के बाद फ़िर वापस नहीं आना पड़ता है। उनका (कृष्ण का) धाम त्रिकुटी था, जहाँ से वो आये थे। 

अपने धाम जाने के लिए त्रिकालदर्शी, समरथ गुरु की खोज कर रास्ता लेकर योग साधना करनी पड़ेगी 

समझ लो। जब कृष्ण ने पांडवों को ले चलने से मना कर दिया तब बहुत रोये, चिल्लाए, बहुत विनती किया की इतने दिन आपके साथ इसी आशा में लगा रहा कि जब चलेंगे, लेते चलेंगे लेकिन दो टूक जवाब उन्होंने दे दिया। कहा देखो भाई अवतारी शक्तियों में जीवों को पार करने की शक्ति नहीं होती है। वह तो समय पर दुष्टों के संहार, सज्जनों की रक्षा, वातावरण को शुद्ध करने, गंदगी को साफ करने के लिए आया करते है। गीता-रामायण पढ़ते हो लेकिन समझने की कोशिश नहीं करते हो। देखो गीता के 4थे स्कंध के 34वें श्लोक में यही चीज़ लिखी हुई है। इसलिए समय के पूरे सन्त सतगुरु को खोज कर अपने असली निज धाम चलने की तैयारी अभी से कर लो।

सन्त उमाकान्त जी के वचन

  • सन्त आदि-अनादि की जानकारी देते हैं।
  • महात्मा और गुरु को चलते-फिरते रहना चाहिए।
  • सन्त मर्यादा को बनाए रखते हैं।
  • सन्त सतगुरु धरती पर मेहमान की तरह आते हैं और अपना काम करके चले जाते हैं। 
  • सन्त सतगुरु की दया, दृष्टि, वाणी और स्पर्श से मिलती है।

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