भटके हुए लोगों का प्रयास है कि किसी भी तरीक़े से कमीशन मस्जिद के अंदर और तहखाने में न जा पाए। आख़िर ये लोग क्या छिपाना चाहते हैं ? तमाम आशंकाओं और तनाव से भरे माहौल में कल 6 मई को शुक्रवार के दिन काशी में अराजी संख्या 9130 स्थित ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण आरम्भ हुआ जो आज भी जारी रहेगा। 10 मई तक कमीशन को रिपोर्ट जमा करनी है। कल तथाकथित मस्जिद के बाहरी हिस्सों का सर्वेक्षण हुआ। देखना ये है कि आज भी कमीशन की टीम मस्जिद के अंदर जा पाती है या नहीं?
कमीशन की कार्रवाई का विरोध करने के लिए अंजुमन इंतज़ामिया मस्जिद के सेक्रेटरी एसएम यासीन ने हज़ारों लोगों को इकट्ठा कर रखा था लेकिन खुद फ़रार था। जिसकी आशंका पहले से थी। ऐनवक़्त पर यासीन की तबियत ख़राब हो गई। उसका ब्लड प्रेशर बढ़ गया। जिसके कारण वो मौक़े पर आया भी नहीं और उसने मीडियाकर्मियों से भी बात करने से मना कर दिया।
जुमे की नमाज़ के बहाने कल पहली बार वहाँ हज़ारों भटके हुए लोग इकट्ठा हो गए थे। चौक थाने तक लाइन लगी थी। अन्यथा सामान्य तौर पर एक-दो दर्जन से ज़्यादा लोग नमाज पढ़ने के लिए नहीं आते। ख़ैर प्रशासन मुस्तैद था। जुमे की नमाज़ के बाद सब को बाहर का रास्ता दिखाकर 4 नम्बर दरवाज़े को बंद कर दिया गया। कमीशन की कार्रवाई 3 बजे से प्रारम्भ हुई। भटके हुए लोगों की ये सारी कवायद केवल सबूतों को दुनिया की नज़रों से छिपाने के लिए है।
विश्वनाथ मंदिर के सम्बन्ध में कई पुस्तकें प्रमाण के तौर पर उपलब्ध हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ नाम की पुस्तक है। यह पुस्तक औरंगज़ेब के दरबारी लेखक सकी मुस्तईद ख़ान ने 1710 में लिख कर पूरी की थी। इसी पुस्तक में उस फरमान का उल्लेख है, जिसमें औरंगज़ेब ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया था। 1936 के मुक़दमे की बात है। अदालत में दोनों पक्षों के द्वारा सबूत पेश किए जा रहे थे।
‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ और औरंगज़ेब के फ़रमान की चर्चा हुई। मुसलमानों ने उर्दू में लिखी ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ पेश की जिसमें विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने और औरंगज़ेब के ऐसे किसी फ़रमान का ज़िक्र नहीं था। हिन्दू पक्ष निराश हो गया। हिन्दू पक्षकारों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी लेकिन कुछ ही दिनों के अन्दर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहासकार डॉ. परमात्मा शरण ने फ़ारसी में लिखी और 1871 में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के द्वारा प्रकाशित असली ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ अदालत के समक्ष प्रस्तुत कर दी।
जिसकी पृष्ठ संख्या 88 पर औरंगज़ेब के आदेश पर काशी विश्वनाथ मन्दिर को तोड़े जाने का ज़िक्र है।तब जाकर उस साज़िश का पर्दाफ़ाश हुआ जो उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में रची गई थी। इसी यूनिवर्सिटी ने ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ का 1932 में उर्दू अनुवाद प्रकाशित किया था। जिसमें से षडयंत्रपूर्वक श्रीकाशी विश्वनाथ के इतिहास वाले पन्नों को निकाल दिया गया था।
ऐसे कई प्रमाण मैं आपके सामने रखने वाला हूँ। सबूतों को गायब कर देना, सबूतों के साथ छेड़-छाड़ करना, फ़र्ज़ी सबूत बनाने का प्रयास करना और फ़र्ज़ी कहानियाँ गढ़ना ये सब इनकी पुरानी चालें हैं। बाद में जब सच उजागर हो जाता है तो ये बकवास और बेसिर पैर की बातें करने लगते हैं। ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ के वो तीन पृष्ठ मैं यहाँ दे रहा हूँ। किसी फ़ारसी पढ़ने वाले हिन्दू जानकर से इसे पढ़वाना चाहिए। अन्य किसी से पढ़वाने पर वो क्या बतायेगा, ये आपको पता ही है।
गोविन्द शर्मा, संगठन मन्त्री, श्रीकाशी विद्वत परिषद
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