राजेश शास्त्री, संवाददाता
आज फिर एक ऐसे महापुरुष की चर्चा करने जा रहे हैं जिनको डॉ राम मनोहर लोहिया जी के नाम से जाना जाता है जिन्हें समाजवादी सिद्धांत का जनक भी कहा जाता है जिनके आंदोलन से किसानों, मजदूरों ऐसे तमाम अधिकार वंचित लोगों की एक उम्मीद जगी थी जिन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़कर ऐसी महाक्रांति की थी जिनका समाजवाद लोहिया वाद के नाम से भी स्थापित हो गया। सवाल उठता है कि ऐसे महापुरुषों के आज के इस वर्तमान समय में जब उनके विचारों और सिद्धांतों की जरूरत है तो उन्हें क्यों भुला दिया गया?
आज तमाम अध्ययनों के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि सशक्त मीडिया भ्रष्टाचार मुक्त भारत एवं सशक्त मीडिया समृद्ध भारत के नवनिर्माण में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया को इग्नोर नहीं किया जा सकता उनके विचारों और उनके क्रांतिकारी सिद्धांतों की आज पुनः जरूरत है। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ऐसे राजनेता थे, जिन्होंने समाजवाद की स्थापना के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए पत्रकारिता को भी उपकरण बनाया था। लोहिया ने अंग्रेजी में मासिक ‘मैनकाइंड’ और हिंदी में मासिक ‘जन’ निकाला था। लोहिया जी ऐसे संपादक थे, जिनकी विश्व पत्रकारिता पर सजग दृष्टि रहती थी। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की किस तरह की सजग दृष्टि रहती थी, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
लोहिया जी ने ‘मैनकाइंड’ के नवंबर 1956 के अंक में लिखा था, “एक देश से दूसरे देश में सूचना-संप्रेषण की स्थिति काफी खराब है। ‘न्यूयार्कर’ पत्र की दुनिया खुश, सुरुचि संपन्न, शक्तिशाली किंतु न्यूयॉर्क तक सीमित है; कोई भी दूसरा शहर चाहे वह कितना ही बड़ा और शक्तिशाली हो, सीमित ही होता है। यह ‘न्यूयार्कर’ न होता तो ‘मैनकाइंड’ को अल्जीरिया के ‘गंदे युद्ध’ के खिलाफ फ्रांस की जनता की कार्रवाई की जानकारी ही नहीं मिलती।
अपने 9 जून के अंक में ‘न्यूयार्कर’ ने उस एक घंटे की हड़ताल की रिपोर्ट छापी है, जो लिमोक्स टाइल मेकर्स में उसके तीन कर्मचारियों को सेना द्वारा बुलाए जाने पर हुई और उस हड़ताल के बारे में भी जो 411 मार्कोनी मजदूरों ने पेरिस के बाहर की। राऊन गोदी कर्मचारियों ने जहाजों में युद्ध-सामग्री लादने से इनकार किया और हड़ताल कर दी। कम्युनिस्ट पत्र ‘ह्लूमैनाइट’ युद्ध-विराम तथा अल्जीरिया में शांति के लिए बातचीत की मांग के साथ इस कार्रवाई को प्रोत्साहन देता रहा है। ‘ह्यूमैनाइट’ ने लामेनस, नाइस और एंटिवस्स में रेलगाड़ियों की कार्रवाई के खिलाफ भी जनता के विरोध की खबर छापी।
ग्रेनोबल में ट्रेन को घंटों रोका गया, लोग पटरियों पर लेट गए। इसी तरह का विरोध बहुत भारी रहा और यह इतना क्रूर था कि जब गाड़ी वहां से चली तो केवल दो सैनिक उसमें रहे। कम्युनिस्ट ‘ह्यूमैनाइट’ ने प्रदर्शनकारियों की संख्या आठ हजार बताई, जिसमें धातु-कारखानों, नौसेना शिपयार्ड और मशीन शॉप के कर्मचारी तथा कुछ स्थानीय महिलाएं थीं। खासकर माताएं।
राष्ट्रीय पत्र ‘किगारो’ ने प्रदर्शनकारियों की संख्या तीन हजार ही बताई। इन पुश्तैनी गुलामों की अटूट सत्ता के बीच क्रांतिकारियों को सावधान रहना चाहिए। सभी निजामों के दंडधारियों को कोसने, इनका मजाक उड़ाने या इनकी निंदा करने से काम नहीं चलेगा। क्रांतिकारियों की उन कमजोरियों को बेरहमी से दूर किया जाना चाहिए, जो इस प्रकार की गुलामी को स्थायित्व प्रदान करती हैं। क्रांतिकारियों को अध्ययनशील और मुकम्मिल बनना होगा, अपने शब्दों तथा विचारों में बिल्कुल सही बनना होगा, दृढ़ निश्चयी बनना होगा और योजना के अनुसार काम करना होगा।
स्थिरता के सुरुचि संपन्न गुलामों की तरह कपड़े पहनना और भाषा बोलना उनके लिए जरूरी नहीं है, लेकिन उन्हें नम्र, सुविज्ञ और यथातथ्य बनना होगा। उन्हें समायोजन की कला सीखनी होगी, क्योंकि क्रांतिकारी में हठीलापन होता है और हठीले लोगों के लिए समायोजन करना बहुत मुश्किल होता है। हम अन्य राजनैतिक पार्टियों के साथ समायोजन का सुझाव नहीं दे रहे हैं, यह समायोजन क्रांतिकारी लोगों के बीच होना चाहिए, उसी तरह जैसे शासक वर्ग, अपने अगड़ों और प्रतिद्वंद्विताओं के बावजूद, अपने बीच समायोजन करते हैं।” समायोजन संबंधी कोई सीख लोहिया से समकालीन राजनीति ने ली है? इस पर राजनीति को लोहियाजी की पुण्यतिथि पर आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।
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